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साधना का लक्ष्य || १०३ अनोखी सूझ से काम लिया । उसने कहा - " राजा साहब ! सिर के बाल बढ़ गए हैं और वे बड़े अटपटे लगते हैं । नाई को बुलाया जाए, मुझे सिर का मुण्डन कराना है । उसकी इस बात को सुनकर समस्त सभासद, समग्र पण्डित और स्वयं राजा भी बड़ा आश्चर्य चकित हुआ । वे सब एक दूसरे का मुख देखकर कहने लगे - "यह पण्डित है या मूर्ख ? यह यहाँ शास्त्रार्थ करने के लिए आया है, अथवा अपने सिर के बाल कटवाने के लिए आया है ?" सब उसकी नुक्ता चीनी करने लगे, उसकी आलोचना और टीका करने लगे। फिर भी वह विचलित नहीं हुआ । वह मुस्कराता रहा, अपनी कटु आलोचना और परिहास सुनकर भी उसके मुख पर विषाद की एवं रोष की रेखा नहीं झलकी । उस सभा में एक वृद्ध एवं अनुभवी पण्डित भी बैठा हुआ था । उसने वस्तु-स्थिति को सोचा और समझा । उसने अपने मन में विचार किया, निश्चय ही यह पण्डित असाधारण है और जीवन के असाधारण रहस्य को खोलना चाहता है । उसने राजा से प्रार्थना की -- "राजन् ! नाई को अवश्य बुलाया जाना चाहिए ।" राजा के आदेश से नाई आ गया और आकर बोला- "क्या आदेश है ?"
अध्यात्मवादी नवागन्तुक पण्डित ने नाई के आते ही उठकर उसका स्वागत किया, प्रणाम किया और प्रशंसात्मक शब्दों में बोला" आइए, पधारिए | आप ईश्वर हैं, परमात्मा हैं और भगवान हैं । "
नाई ने यह सुना तो भौंचक्का रह गया । पण्डित जी के चरणों का स्पर्श करते हुए गिड़गिड़ाकर बोला- “आप यह क्या कह रहे हैं ? इस प्रकार कह कर आप मुझे लज्जित क्यों करते हैं ? मैं तो आप सुब का दास है, गुलाम हूँ । ईश्वर या परमात्मा जो भी कुछ हैं, आप हैं, राजा साहब हैं, मैं नहीं ।"
अध्यात्मवादी नवागन्तुक पण्डित ने सभा के समस्त सभासदों को एवं स्वयं राजा को सम्बोधित करते हुए कहा - " राजन् ! आपकी राज सभा के इन राज पण्डितों में और आपके इस नाई में कोई भेद नहीं है । नाई कहता है - "मैं दास हूँ, मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ ? मैं गुलाम हूँ ।" आपके राज पण्डित भी यही कहते हैं कि "हम दास हैं, हम गुलाम हैं । हम संसारी बद्धजीव भगवान नहीं हो सकते । " भला जिन के मन में दासता और गुलामी की यह भावना गहरी बैठ गई है, वे मुक्त कैसे हो सकते हैं ? वे अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न कैसे कर सकते हैं ? मन में दासता और गुलामी की भावना भी बनी रहे और मुक्ति के लिए प्रयत्न भी होता रहे, यह सम्भव नहीं है ।
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