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________________ १०४ | अध्यात्म-प्रवचन जिन मनुष्यों के मन में यह आस्था एवं निष्ठा है कि "हम अनन्त काल से बद्ध हैं और अनन्तकाल तक बद्ध ही रहेंगे। ईश्वर, ईश्वर ही रहेगा और भक्त, भक्त ही रहेगा।" दासता की यह भावना ही उन्हें मुक्ति-मार्ग पर आगे नहीं बढ़ने देती है । राजन् ! मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि, आपकी राज-सभा के ये राज-पण्डित, पोथी और शास्त्रों की विशाल ज्ञान-राशि को अपनी बुद्धि में उँडेलने के बाद भी जीवन के उसी निम्न धरातल पर खड़े हैं, जहाँ पर आपका यह दास, गुलाम और अपढ़ नाई खड़ा है।" मैं आपसे यह कह रहा था कि-जब साधक के हृदय में यह आस्था बैठ जाती है, कि मैं अनन्तकाल से बद्ध हूँ और कभी मुक्त नहीं हो सकता, तो कभी भी वह अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं कर सकता । मुक्ति के लिए प्रयत्न वही कर सकता है, जिसके मन और मस्तिष्क में मुक्त होने के लिए प्रबल संकल्प जागृत हो चुका है। RAN Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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