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________________ २५८ | अध्यात्म-प्रवचन अध्यात्म साधना यह तभी सम्भव सम्यक् दर्शन की मैंने आपसे यहाँ पर कुछ उन विचारों की चर्चा की है, जो सम्यक् दर्शन के नाम पर आज चल रहे हैं। मैं आपसे पहले कह चुका है, कि सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ - आत्म-श्रद्धान और आत्म-प्रतीति ही है । सिद्धान्त की दृष्टि से, जैन-दर्शन का तत्वज्ञान बाहर के अनन्त पदार्थों में नहीं भटकता, वह मूल को पकड़ता है, जिससे सारा विश्व पकड़ में आ जाता है। सबका मध्यबिन्दु एवं मुल केन्द्र आत्मा ही है । सम्यक् दर्शन की महिमा यह है, कि वह आविर्भूत होते ही मिथ्याज्ञान को सम्यक् ज्ञान बना देता है और मिथ्या चारित्र को सम्यक् चारित्र बना देता है । का लक्ष्य है - आत्म जागृति और आत्म विकास । है, जब कि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो जाय । उपलब्धि होते ही, आत्मा और अनात्मा का स्पष्ट परिबोध हो जाता है । परन्तु कषायभाव के कारण तथा उसकी तीव्रता के कारण, फिर मलिनता आने की सम्भावना बनी रहती है । कषायभाव की जितनी मन्दता रहती है, आत्म-भाव उतना ही निर्मल रहता है और कषाय भाव की जितनी ही तीव्रता रहती है, आत्मभाव उतना ही मलिन हो जाता है । कुछ लोग इस प्रकार सोचते हैं, कि सम्यक्दर्शन की उपलब्धि होने पर आत्मा में ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और जब तक सम्यक् दर्शन रहता है, ज्ञान बढ़ता रहता है । परन्तु सिद्धान्त की दृष्टि से यह विचार युक्ति-युक्त नहीं है । क्योंकि सम्यक् दर्शन का काम, न ज्ञान को उत्पन्न करना है और न ज्ञान को बढ़ाना है । यह तभी उचित कहा जा सकता है, जबकि ज्ञान आत्मा से भिन्न कोई बाह्य पदार्थ हो, किन्तु जैन दर्शन की दृष्टि से तो ज्ञान ही आत्मा है और आत्मा ही ज्ञान है । सम्यक् दर्शन ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता एवं ज्ञान को बढ़ाता नहीं है, बल्कि वह उसकी दिशा बदल देता है । ज्ञान की जो धारा संसाराभिमुखी होती है, उसे मोक्षाभिमुखी बना देना ही सम्यक् दर्शन का प्रधान कार्य है । सम्यक् दर्शन ज्ञानधारा को मोक्ष साधना में नियोजित कर उसे मात्र सम्यक् बना देता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है, कि उस समय ज्ञान केवल आत्मा को ही जानता है और आत्मा से भिन्न जड़ को नहीं जानता । ज्ञान तो एक दर्पण के समान है, जिसमें आत्मा और अनात्मा तथा जड़ और चेतन सभी कुछ प्रतिबिम्बित हो सकता है । किन्तु साधना का लक्ष्य एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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