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________________ २५६ | अध्यात्म प्रवचन विचार का समर्थन करता है, तो क्या बुरा करता है। यह प्राचीनता और अर्वाचीनता काल कृत है, काल के परिचक्र के अनुसार जगत में नित्य परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन की उपेक्षा नहीं की जा सकती और इस परिवर्तन को झुठलाया नहीं जा सकता। जिस व्यक्ति के पास विवेक का बल है, और जिस व्यक्ति के पास प्रतिभा की शक्ति है, वह पुरातन वाद को भी, अपनी बुद्धि की तुला पर तोल कर ही ग्रहण कर सकता है। किसी भी बात पर आँख मूंद कर और कान बन्द कर, वही व्यक्ति मौन रह सकता है, जिसके पास अपना विवेक न हो और जिसके पास अपनी बुद्धि न हो। यदि आज का विचार सुन्दर है, जीवन उपयोगी है, जिन्दगी को ताजगी देने वाला है, तो उसे ग्रहण करने में इस आधार पर पीछे नहीं हटना चाहिए, कि यह विचार नवीन है। यदि कोई विचार असुन्दर है, जीवन के लिए उपयोगी नहीं रहा है, उससे जीवन के लिए कोई निर्माण कारी प्रेरणा नहीं मिल रही है, तो इस आधार पर उसे नहीं पकड़े रहना चाहिए, कि यह प्राचीन है। किसी भी असम्बद्ध और असंगत बात को प्राचीनता के नाम पर स्वीकार कर लेना, एक प्रकार का अन्धविश्वास है, एक प्रकार का अज्ञान है और एक प्रकार का रूढ़िवाद है, उसे सम्यक दर्शन कहना पाप है, और उसे सम्यक दर्शन कहना मिथ्यात्व है । प्राचीनता एक मात्र भूषण है और नवीनता एक मात्र दूषण है, यह विचार उन लोगों का होता है, जो पंथवादी होते हैं और प्रत्येक वस्तु को उपयोगिता की तुला पर न तोल कर अपने स्वार्थ पोषण के लिए केवल प्राचीनता की तुला पर ही तोलते रहते हैं। मैं आपसे इस बात की चर्चा कर रहा था, कि सम्यक् दर्शन और मिथ्यादर्शन का निर्णय, प्राचीनता और अर्वाचीनता के आधार पर मत कीजिए। उसका निर्णय कीजिए, समीचीनता के आधार पर । एक व्यक्ति का जो सत्य है, वही सत्य दूसरे व्यक्ति का हो, यह कैसे हो सकता है ? एक व्यक्ति के लिए दूध पीना रुचिकर हो सकता है, किन्तु दूसरे के लिए दही खाना रुचिकर होता है । यद्यपि दूध और दही दोनों अपने आप में अच्छी वस्तु हैं, दोनों से शरीर को पुष्टि मिलती है, किन्तु रुचि के आधार पर एक के लिए दूध सत्य है, तो दूसरे के लिए दही भी उतना ही सत्य है। इसी प्रकार मैं आपसे कह रहा था, कि किसी व्यक्ति के लिए उत्तराध्ययनसूत्र रुचिकर हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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