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२६ | अध्यात्म-प्रवचन द्रौपदी, पार्वती और त्रिशला भी कम नहीं हैं। इसके पीछे एक ध्येय है और वह यह कि जैसा तुम्हारा नाम है वैसे ही तुम बन सकते हो । ये नाम केवल आदर्श नहीं हैं, यथार्थ हैं। हाँ तो, एक साधक अपने जीवन में एक आदर्शवादी दृष्टिकोण को लेकर चलता है, किन्तु उसका वह आदर्श केवल आदर्श ही नहीं है, जीवन के धरातल पर उतरने वाला एक यथार्थवाद है, आदर्श को यथार्थ में बदलने की और यथार्थ को आदर्श में बदलने की कला का यहाँ चरम विकास हुआ है । भारतीय संस्कृति का यह एक स्वस्थ, संतुलित, सुन्दर एवं मधुर सिद्धान्त रहा है कि जीवन को शान्त एवं मधुर बनाने के लिए विचार को आचार में बदला जाए और आचार को विचार में बदला जाए। भारतीय दर्शन का आदर्श आत्मा के सम्बन्ध में सच्चिदानन्द रहा है । जहाँ सत् अर्थात् सत्ता, चित् अर्थात् ज्ञान और आनन्द अर्थात् सुख तीनों की स्थिति चरम सीमा पर पहुँच जाती है, उसी अवस्था को यहाँ परमात्म-भाव कहा गया है । उसकी प्राप्ति के बाद अन्य कुछ प्राप्तव्य नहीं रहता। इसकी साधना कर लेने के बाद अन्य कुछ कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। आप ही विचार कीजिए - जब अनन्त आनंद मिल गया, अक्षय सुख मिल गया, फिर अब क्या पाना शेष रह गया? कुछ भी तो शेष नहीं बचा, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाए एवं साधना की जाए । भारतीय दर्शन में इसी को मोक्ष कहा गया है, इसी को मुक्ति कहा गया है और इसी को मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य माना गया है। एक बात याद रखिए-जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का अनन्त आनन्द सत् है, असत् नहीं । वह केवल दुःखाभावरूप तुच्छ अभाव नहीं है । अपितु अनन्त काल से विकृत चले आ रहे आनन्द का शुद्ध रूप है। जब आत्मा स्वयं सत् है, तो उसका आनन्द असत् कैसे हो सकता है ? जब आत्मा स्वयं सत् है, तो उसका चित् (ज्ञान) असत् कैसे हो सकता है ? आत्मा में सत्, चित् और आनन्द शाश्वत हैं, नित्य हैं, इनका कभी अभाव नहीं होता।
प्रश्न किया जा सकता है कि जब आत्मा सुख-रूप एवं आनन्द रूप है, तब उसमें दुःख कहाँ से आता है और क्यों आता है ? इसके उत्तर में मैं आपसे केवल इतना ही कहूँगा, कि दुःख का मूल कारण बन्धन है। जब तक आत्मा की बद्ध दशा है, तभी तक आनन्द विकृत होकर दुःख की स्थिति में बदला रहता है। दुःख एवं क्लेश का मूल कारण कर्म, विद्या, माया एवं वासना को माना गया है। जब तक
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