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________________ मुक्ति का मार्ग | २७ आत्मा कर्म के बन्धन से बद्ध है, तभी तक आनन्द विकृत रहता है, तभी तक उसे दुःख और क्लेश रहते हैं । जब आत्मा का कर्म के साथ संयोग न रहेगा, तब आनन्द अपने शुद्ध रूप में परिणत हो जायगा, फलतः सर्व प्रकार के दुःख एवं क्लेशों का क्षय हो जाएगा। ___आप यहाँ एक बात और समझ लें, देह का नाश या शरीर का छूट जाना ही मोक्ष नहीं है। ग्राम, नगर और समाज को छोड़कर शून्य निर्जन वन में चले जाना ही मोक्ष नहीं है । इस प्रकार का मोक्ष तो एक बार नहीं, अनन्त-अनन्त बार हो चुका है। वास्तविक मोक्ष यही है, कि अनन्त-अनन्त काल से आत्मा के साथ सम्बद्ध कर्म, अविद्या और माया को दूर किया जाए। विकारों से मुक्ति ही सच्ची मूक्ति है । जीवन्मुक्ति पहले है, और विदेह मुक्ति उसके बाद में है। भारतीय दर्शन का लक्ष्य आनन्द है । भले ही वह दर्शन भारत की किसी भी परम्परा से सम्बद्ध रहा हो। किन्तु प्रत्येक अध्यात्मवादी दर्शन इस तथ्य को स्वीकार करता है, कि साधक के जीवन का लक्ष्य एकमात्र आनन्द है । यह प्रश्न अवश्य किया जा सकता है, कि उस अनन्त आनन्द की प्राप्ति वर्तमान जीवन में भी हो सकती है, या नहीं? क्या मृत्यु के बाद ही उस अनन्त आनन्द की प्राप्ति होगी? मैं इस तथ्य को अनेक बार दुहरा चुका हूँ कि मुक्त एवं मोक्ष जीवन का अंग है। स्वयं चैतन्य का ही एक रूप है। एक ओर संसार है और दूसरी ओर मुक्ति है। जब यह जीवन संसार हो सकता है, तब यह जीबन मोक्ष क्यों नहीं हो सकता? जीवन से अलग न संसार है और न मोक्ष है । संसार और मोक्ष दोनों ही जीवन के दो पहलू हैं, दो दृष्टिकोण है। दोनों को समझने की आवश्यकता है। यह बात कितनी विचित्र है, कि संसार को तो हम जीवन का अंग मान लें, किन्तु मुक्ति को जीवन का अंग न मानें । जैन दर्शन कहता है, कि एक ओर करवट बदली तो संसार है और दूसरी ओर करवट बदली तो मोक्ष हैं । किन्तु दोनों ओर करवट बदलने वाला जीवन शाश्वत है। वह संसार में भी है और मोक्ष में भी है । इसलिए मोक्ष जीवन का ही होता है, मोक्ष जीवन में ही होता है, मृत्यु में नहीं। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह भी आखिर क्या वस्तु है ? जीवन का ही एक परिणाम है अथवा जीवन की ही एक पर्याय है । मोक्ष एवं मुक्ति यदि जीवन-दशा में नहीं मिलती है, तो मृत्यु के बादे वह कैसे मिलेगी ? अतः भारतीय दर्शन का यह एक महान आदर्श है, कि जीवन में ही मुक्ति एवं मोक्ष प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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