________________
तीन प्रकार की चेतना [ ३६१ जड़ तो अवश्य हैं, पर कर्म और क्रिया तो उनमें हैं, क्योंकि जैन-दर्शन के अनुसार पुद्गल में भी क्रिया-शक्ति रहती ही है, तब बन्ध क्यों नहीं होता? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा गया है, कि पखे में कर्म एवं क्रिया होते हुए भी अथवा चन्दन एवं अगरबत्ती में कर्म एवं क्रिया होते हुए भी चेतना नहीं है, इसी लिए वहाँ बन्ध नहीं होता। मैं आपसे कह रहा था कि कर्म के साथ जहाँ चेतना होती है, वहीं पर बन्ध होता है । चेतना-शून्य कर्म तो जड़ पदार्थ में भी होता है, किन्तु उसे किसी प्रकार का बन्ध नहीं होता । यहाँ पर एक बात और समझ लेनी है, कर्म का अर्थ है-क्रिया। क्रिया का अर्थ है-चेष्टा और प्रयत्न । क्रिया और चेष्टा दो ही तत्वों में होती है-जीव में और अजीव में, आत्मा और पुदगल में । इतना अन्तर अवश्य है, कि चेतन की क्रियाएँ चेतन में होती हैं और जड़ क्रियाएँ जड़ में होतो हैं । चेतन की क्रिया जड़ में नहीं हो सकती और जड़ की क्रिया चेतन में नहीं हो सकती । मैं आप से कह रहा था, कि खाली कर्म होने पर बन्ध नहीं होता, किन्तु कर्म-चेतना के होने पर ही बन्ध होता है। यदि केवल कर्म हो और उसके साथ चेतना न हो, तो वहाँ बन्ध नहीं होता। जैसा कि मैंने पंखे, चन्दन और अगरबत्ती के उदाहरण में कहा है। उन तीनों में कर्म तो हैं किन्तु कर्म के साथ चेतना नहीं है, इसलिए पंखे को अशुभ बन्ध नहीं होता। प्रत्येक साधक को कर्मचेतना का रहस्य भली भांति समझ लेना चाहिए। कर्म चेतना का अर्थ यह है कि चेतना-पूर्वक जो कर्म किया जाता है, उसी से बन्ध होता है और चेतना-पूर्वक कर्म चेतना में ही सम्भव है। अतः चेतना में ही बन्ध होता है और चेतना में ही मोक्ष होता है । पुद्गल में कर्म होते हुए भी चेतना का अभाव होने से न उसका बन्ध होता है और न उसका मोक्ष होता है । यही कर्म चेतना का मूल रहस्य है । ___मैं आपसे कर्म चेतना की बात कर रहा था। जब हमारे अन्तर में राग से या द्वष से क्रिया की स्फुरणा होती है, और कर्म की भाव लहरी लहराने लगती है, तब भाववती शक्ति से आत्म-चेतना विविध विकल्प करती है । वे विकल्प इस प्रकार के होते हैं-यह करू', यह न करू, वह करू, वह न करूं, क्या करूँ, क्या न करू ? इस प्रकार के विकल्पों की अन्तर में जो ध्वनि निरन्तर उठा करती है, यही कर्म चेतना है । यह सब चेतना एवं स्फुरणा कहाँ से आती हैं ? यह कहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org