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२६४ | अध्यात्म-प्रवचन
अध्यात्म-साधना में स्वयंभू हैं। यह जड़ चेतनात्मक समग्र विश्व उनकी ज्ञान-दृष्टि के समक्ष हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष था। उन्होंने अपने अन्तर में और बाहर प्रकृति में भी अनन्त का दर्शन किया था। अपनी आत्मा के अनन्त परिणामों को भी उन्होंने जाना था, और इस जड़ प्रकृति के अनन्त रूप-परिधानों को भी उन्होंने जाना था। परन्तु अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में कुछ साधक ऐसे भी थे, जिनका जीवन इतनी ऊँचाई पर नहीं पहुँच सका, परन्तु फिर भी वे अपने साधनापथ पर अग्रसर होते हुए, हताश एवं निराश नहीं हुए। यदि उन्हें उनकी जिन्दगी में जीत नहीं मिल सकी, तो हार भी उन्होंने स्वीकार नहीं की। वे अपनी साधना के क्षेत्र में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर नहीं बैठे । यदि उन्हें स्वयं के अभ्यास एवं अनुभव से सत्य की उपलब्धि नहीं हो सकी, तो उन्होंने महापुरुषों की वाणी से प्रेरणा लेकर तथा गुरु के उपदेश से दिशा दर्शन लेकर सत्य की उपलब्धि का प्रयत्न किया । और कभी जब मार्ग में चलते-चलते स्वयं की बुद्धि का प्रकाश ओझल होने लगा तो वे शास्त्र तथा गुरुवाणी के प्रकाश का अवलम्बन लेकर अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहे।
इस प्रकार अध्यात्म-साधना के फलस्वरूप साधकों को सत्य की उपलब्धि दो रूपों में होती रही है-प्रत्यक्ष रूप में और परोक्ष रूप में । परम विशुद्ध ज्ञान से सत्य की जो उपलब्धि होती है, उसे परम प्रत्यक्ष कहा जाता है। इस उपलब्धि का कारण केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन होता है। अवधिज्ञान और मनःपर्याय ज्ञान से जो सत्य का साक्षात्कार होता है, वह भी प्रत्यक्ष है, परन्तु वह शास्त्रीय भाषा में विकल अर्थात् खण्ड प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके विपरीत अपनी स्वयं की चिन्तन-बुद्धि से अथवा शास्त्र ज्ञान आदि के आधार पर सत्य की जो उपलब्धि होती है, उसे परोक्ष कहा जाता है। केवलज्ञानी ने अपने केवल ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सत्य का साक्षात्कार किया, तो श्रुत ज्ञानी ने शास्त्र आदि के चिन्तन एवं मनन के आधार पर, विश्व के सत्य स्वरूप का परोक्ष दर्शन कर लिया। मूल प्रश्न यह है, कि जब अध्यात्म-साधकों ने अपने जीवन के सत्य को परखने का प्रयत्न किया, तब उन्होंने जाना कि आत्म-तत्वरूप चैतन्य में जीवन का जो अनन्त सागर लहरा रहा है, उसे उन्होंने किस रूप में देखा और परखा ? संक्षेप में समाधान दिया गया है कि कुछ महापुरुषों ने प्रत्यक्ष रूप में देखा, तो कुछ ने परोक्ष रूप में देखा।
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