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________________ धर्म-साधना का आधार | १७७ शुद्ध परिणमन है, वह राग नहीं है । परन्तु जो तत्त्वरुचि संसार-लक्ष्यी है, वह राग है और वह सम्यक् दर्शन नहीं है। बहुत दिनों की बात है । मैं तत्कालीन पटियाला राज्य के महेन्द्रगढ़ नगर में ठहरा हुआ था। उस समय दिल्ली के गुलाबचन्द्र जैन मेरे पान सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान ओलिवर लुकुम्ब को लाए। वह पाश्चात्य विद्वान बड़ा ही मधुर भाषी, विचारशील और दर्शन-शास्त्र का एवं धर्म-शास्त्र का एक विशिष्ट पण्डित था। भारत की प्राचीनतम भाषाएँ प्राकृत एवं संस्कृत पर उसका असाधारण अधिकार था। एक विदेशी होकर उसने प्राकृत एवं संस्कृत सीखी, यह कम आश्चर्य की बात नहीं है । उसने जैन-धर्म और जैन-दर्शन का विशिष्ट चिन्तन, परिशीलन एवं अध्ययन किया था। मैंने देखा कि वह अपनी बातचीत में यथा प्रसंग आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र एवं कल्पसूत्र आदि के मूल पाठों को उद्धत करता जाता था। यदि कोई भारतीय विद्वान इस प्रकार पाठों को बोलता तो कोई आश्चर्य की बात न होती । किन्तु एक विदेशी होकर इस प्रकार भारतीय विद्या पर और भारतीय भाषा पर अधिकार रखता हो, तो वस्तुतःआश्चर्य की बात होती है। मैंने अनुभव किया, कि प्रोफेसर का चिन्तन एवं अध्ययन गम्भीर है । उसे जो कुछ शंकाएँ थीं, उन्हें दूर करने के लिए और वर्तमान में जैन-धर्म एवं जैन-दर्शन को परम्परा किस रूप में और कैसी है, यह देखने के लिए ही वह भारत आया था । अहिंसा और अनेकान्त पर उसने अपने मन की शंकाएँ मेरे समक्ष रक्खीं। मैंने यथोचित समाधान की दिशा प्रशस्त की। इसके अतिरिक्त मूल, आगम, उनकी टीकाएँ और उनके भाष्यों में से भी उसने अनेक चर्चाएं की। बातचीत के प्रसंग में मैंने अनुभव किया, कि वह एक शान्त चत एवं प्रसन्न-चित व्यक्ति है। अपना तर्क कट जाने पर भी उसे आवेश नहीं आता था, और प्रसन्नता से कहता कि-"मुनिजी ! मेरे तर्क से आपका तर्क पैना है, आपका चिन्तन गम्भीर एवं तर्कसंगत है।" मैंने देखा कि उसके मन में तत्त्वरुचि का भाव बहत गहरा एवं तीव्र है । तत्त्वचर्चा में वह इतना तल्लीन हो जाता था कि बाहर की स्थिति से अलिप्त हो जाता था। भयंकर गर्मी पड़ रही थी। वह पसीने से लथपथ हो जाता था, फिर भी घन्टों ही एक आसन से तत्त्व चर्चा में संलग्न रहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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