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________________ तीन प्रकार की चेतना | ३५६ विरोधी अवस्थाएँ हैं, फिर वे दोनों एक चेतन में कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भारत के तत्वचिन्तकों ने बहुत कुछ लिखा है और बहुत कुछ कहा है । इस तथ्य को समझने के लिए, उन्होंने एक बहुत सुन्दर रूपक कहा है, जो इस प्रकार है । शिष्य प्रश्न करता है, "भगवन् ! इस अनन्त आकाश में मेघ कहाँ से आ रहा है तथा उसे कौन लाता है ?" गुरु ने अपने शिष्य के प्रश्न के उत्तर में कहा"मेघ कहीं बाहर से नहीं आता, इस अनन्त आकाश में प्रवह मान पवन ने ही इसे उत्पन्न कर दिया है ।" शिष्य ने फिर पूछा "इस मेघ को नष्ट कौन करता है ?" गुरु ने कहा - " जो पवन उसे उत्पन्न करता है, वह पवन ही उसे नष्ट भी कर देता है ।" पवन में एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह मेघ को उत्पन्न भी कर सकता है और नष्ट भी कर सकता है । पवन ही इस अनन्त गगन में घटाओं का निर्माण करता है और पवन ही उन्हें बिखेर भी देता है । यह मैंने आपसे बाह्यप्रकृति की बात कही, किन्तु अन्दर में, आत्मा में क्या होता है ? इस आत्मरूपी आकाश में बन्ध रूपी मेघ कहाँ से आता है और फिर कौन उसे छिन्न भिन्न कर डालता है ? याद रखिए, चिदाकाश में एक घटा नहीं, अनन्त - अनन्त घटाएँ घुमड घुमड कर आती हैं, सुख-दुख की वर्षाएँ होती हैं और फिर छिन्न-भिन्न हो जाती हैं । जब चिदाकाश में कर्म की घटाएँ उमड़ घुमड़ कर छा जाती हैं, उस समय जीवन अन्धकारमय बन जाता है, कुछ भी सूझता नहीं है, उस समय निरन्तर सुख-दुख की वर्षा होती रहती है । इस प्रकार की स्थिति में यह कौन विचार कर सकता है, कि इस चिदाकाश में से इन कारी कजरारी मेघ घटाओं का कभी अभाव भी होगा ? परन्तु निश्चय ही एक दिन चिदाकाश में से कर्म रूपी घटाओं का अन्त हो जाता है । पर प्रश्न यह है, कि इन कर्म रूपी घटाओं को उत्पन्न करने वाला कौन है और अन्त करने वाला कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि स्वयं आत्मा ही अपने अनन्त चिदाकाश में कर्म की मेघ घटाओं को उत्पन्न करता है और स्वयं आत्मा ही उनको छिन्न-भिन्न एवं नष्टभ्रष्ट भी कर डालता है । इसीलिए मैंने आप से यह कहा था, कि बन्ध भी चेतन में ही है और मोक्ष भी चेतन में ही है । चेतन से बाहर न बन्ध है और न मोक्ष है । जिस प्रकार पवन स्वयं हो मेघों को उत्पन्न करता है और स्वयं ही उन्हें नष्ट भी कर देता है, उसी प्रकार स्वयं आत्मा ही अपनी चेतना शक्ति से कर्मों को उत्पन्न करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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