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सम्यक् दर्शन के भेद | २०६ और तोड़ने की दोनों क्रियाएँ एक साथ निरन्तर चलती रहती हैं। याद रखिए, यह आत्मा संसार की ओर तब बढ़ती है, जब कि भोग, भोग कर कर्म बन्धन को तोड़ने की प्रक्रिया कम होती है और बाँधने की प्रक्रिया अधिक बढ़ जाती है । कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अन्न से अपना एक कोठा भरता भी है और खाली भी करता है, खाली करने और भरने का क्रम यह है कि उसमें से एक सेर अन्न रोज निकालता है तथा बदले में चार सेर अन्न नया डाल देता है। इस स्थिति में वह अन्न-भण्डार क्या कभी खाली होगा? खाली क्या, इस प्रकार तो वह निरन्तर बढ़ता ही जाएगा। इसका कारण यह है, कि निकालने की मात्रा कम है और डालने की मात्रा अधिक है। इसी प्रकार अनन्तअनन्त काल से इस आत्मा ने अपने मिथ्यात्व भाव के कारण कर्मों के भण्डार को अधिक परिमाण में भरा है और उन्हें भोग भोगकर खाली करने की मात्रा बहुत अल्प की है। एक बात और है, यदि पूर्वकृत कर्मों को भोगते समय अनुकूल भोग में रागात्मक तथा प्रतिकूल भोग में द्वषात्मक परिणति हो जाती है, तो कर्मदल भोग रूप से जितने क्षीण होते हैं उससे कहीं अधिक उनका बन्ध हो जाता है। आत्मा का कोई भी मोहात्मक विभाव परिणाम जब उदय में आता है, भले ही वह विभाव परिणाम राग का हो, शोक का हो, क्रोध का हो अथवा लोभ आदि का हो, उससे कर्म का बन्ध ही होता है । उससे भोगरूप में कर्म का क्षय होता भी है, तो बहत ही अल्प मात्रा में होता है । सुख दुःख के भोगकाल में भी यदि आत्मा जागृत नहीं है, भोग वृत्ति से उदासीन नहीं है, तो वह भविष्य के लिए और कर्म बाँध लेता है। ___ एक मजदूर अपने घर सायंकाल को जब अपने एक सप्ताह का वेतन लेकर लौटा, तब उसने देखा कि उसका प्यारा बच्चा घर के आंगन में खेल रहा है । अपने आँखों के तारे को प्यार करते हुए मजदूर ने अपने हाथ का दस का नोट उसके हाथ में दे दिया और वह स्वयं आंगन में पड़ी हुई खाट पर विश्राम करने लगा। इधर बच्चा खेलता-खेलता चूल्हे के पास जा पहुंचा, और खेल-ही-खेल में अपने हाथ का वह नोट उसने आग में फेंक दिया। इस दृश्य को देख कर वह पिता हतप्रभ एवं स्तब्ध हो गया, उसके मस्तिष्क में क्रोध का तूफान इतने वेग के साथ उठा, कि वह अपने को न संभाल सका और
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