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२०८ ] अध्यात्म-प्रवचन मिट्टी उपादान कारण है। और जो कारण कार्यरूप परिणत न हो पृथक रूप से रहे, वह निमित्त कारण होता है, जैसे कि घटरूप कार्य में चक्र और दण्ड आदि । कार्य किसको कहा जाता है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में यहां पर केवल इतना ही समझना अभीष्ट है, कि कार्य को कर्म, अवस्था, पर्याय और परिणाम भी कहा जाता है। कार्य की उत्पत्ति के अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती कारण होता है और कारण के अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती कार्य होता है। यहाँ पर प्रसंग चल रहा है, सम्यक् दर्शन का। सम्यक् दर्शन रूप कार्य की उत्पत्ति में उपादान कारण स्वयं आत्मा ही है। क्योंकि आत्मा का सम्यक् दर्शन जो एक निज गुण है, उसकी विशुद्ध पर्याय को ही सम्यक् दर्शन कहा जाता है और मिथ्यात्व उसकी अशुद्ध पर्याय है । मिथ्यात्व रूप अशुद्ध पर्याय का व्यय और सम्यक् दर्शन रूप शुद्ध पर्याय का उत्पाद ही सम्यक् दर्शन है। यहाँ पर निसर्गज सम्यक् दर्शन की चर्चा चल रही है। निसर्ग का अर्थ है-स्वभाव, परिणाम और अपरोपदेश । जो सम्यक् दर्शन बिना किसी परसंयोग के एवं बाह्य निमित्त के प्रकट होता है उसे निसर्गज सम्यक् दर्शन कहते हैं । निसर्गज सम्यक् दर्शन में किसी भी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती है, स्वयं आत्मा में ही सहज भाव से जो स्वरूप ज्योति जलती है और जो सत्य दष्टि का प्रकाश जगमगाने लगता है, वह सम्यक् दर्शन की ज्योति है । उस ज्योति का उपादान कारण स्वयं आत्मा है । जब आत्मा अपने अन्तरंग में संसार की ओर दौड़ता-दौड़ता कभी सहजभाव से संसार को अपने पीठ पीछे छोड़कर मोक्ष की ओर दौड़ने लगता है, आत्मा की इसी स्थिति को निसर्गज सम्यक् दर्शन कहा जाता है। मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि बिना किसी बाहरी तैयारी के स्वयं आत्मा की अपनी अन्तरंग तैयारी से सहज भाव एवं स्वभाव से आत्मा को जो एक निर्मल ज्योति प्राप्त होती है, वह निसर्गज सम्यक दर्शन है। उसे निसर्गज कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि वर्तमान जीवन में एवं वर्तमान जन्म में तथा जीवन के उस क्षण में, जब कि वह ज्योति प्रकट हई, उस समय उसे बाहर में न किसी गुरु के उपदेश का निमित्त मिला, न वीतराग वाणी के स्वाध्याय का ही अवसर प्राप्त हुआ। ___ आत्मा समय-समय पर कर्म के नवीन आवरणों को बांधता रहता है और पुरानों को तोड़ता रहता है । कर्म के आवरणों को बांधने की
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