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________________ विवेक दृष्टि | ५६. ज्ञानमय था, परन्तु उस ज्ञान का उपयोग आत्म-विकास के लिए न होकर अहंकार के पोषण के लिए था । अतएव वह ज्ञान, अज्ञान बन रहा था । इन्द्रभूति ने अपनी प्रतिभा का चमत्कार अभी तक केवल दूसरों को पराजित करने के लिए ही किया था, किन्तु अपने और दूसरों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए नहीं । परन्तु त्रिपदी का परिज्ञान हो जाने पर इन्द्रभूति के ज्ञानोपयोग की धारा ही बदल गई, वह अधोमुखी न रहकर ऊर्ध्वमुखी बन गई, अज्ञान से ज्ञान में परिवर्तित हो गई । उपादेय एक प्रश्न और उठता है, वह यह, कि पहले हेय और अन्त में उपादेय रखकर बीच में ज्ञेय क्यों रखा ? इसका उत्तर यह है, कि मध्य का ज्ञेय देहली - दीपक न्याय से दोनों ओर प्रकाश डालता है । इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञान का केन्द्र - बिन्दु सर्वप्रथम स्व और पर का ज्ञान है । अनन्तर हेय क्या है और उपादेय क्या है, इसका भी सम्यक् बोध होना चाहिए। को भी अन्धा बनकर ग्रहण मत करो, उसमें भी कब और कितना ग्रहण करने का विवेक आवश्यक है । इसी प्रकार हैय भी ज्ञानपूर्वक ही होना चाहिए। क्या कुछ छोड़ना है, यह भी जानो और क्या कुछ ग्रहण करना है, इसे भी समझो । त्याग या ग्रहण कुछ भी करो, आँख खोलकर करो । आँख बन्द कर चलते रहने से लक्ष्य पर नहीं पहुँचा जा सकता । साधना के पथ पर अन्धे होकर चलने से किसी प्रकार का लाभ न होगा । साधक को उस अन्धे हाथी के समान नहीं होना चाहिए, जो मदमस्त होकर तीव्र गति से दौड़ता है, किन्तु कहाँ जा रहा है, इसका परिज्ञान उसे नहीं होता । साधक को अध्यात्म-साधना की जो विवेक ज्योति प्राप्त है, उसका सही उपयोग एवं प्रयोग करना चाहिए । जब आँख मिली है, तब उसका उपयोग क्यों न किया जाए ? यदि आँख मिलने पर भी व्यक्ति उसका यथोचित उपयोग नहीं करता, तो आँख प्राप्ति का उसे कोई लाभ नहीं हो सकता । कल्पना कीजिए - एक व्यक्ति अन्धा है, आँखों का आकार तो उसे प्राप्त है, किन्तु देखने की शक्ति उसे प्राप्त नहीं है । इस प्रकार के नेत्रहीन एवं दृष्टि रहित मनुष्य के सामने यदि सुन्दर से सुन्दर दर्पण भी रख दिया जाए, तो उससे उसको क्या लाभ होगा ? क्या अपने प्रतिबिम्ब को वह उसमें देख सकता है ? यद्यपि दर्पण स्वच्छ एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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