SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपादान और निमित्त | २२६ ही विचित्र एवं दिलचस्प कहानी है। कहा गया है कि-सागर का मंथन करने के लिए एक ओर देवता लगे और दूसरी ओर दानव लने । मंदराचल पर्वत को मथानी बनाया गया और शेषनाग को नेति बनाया गया। फिर दोनों ने मिलकर सागर का मंथन किया, जिसमें से अमृत भी निकला और साथ में विष भी निकला। प्रत्येक व्यक्ति प्राणप्रद अमृत की उपलब्धि तो करना चाहता है, किन्तु मारक विष को कोई ग्रहण करने के लिये तैय्यार नहीं होता। इसी प्रकार शास्त्रों के सागर का मंथन करने वाले विद्वान संसार में बहुत हैं, किन्तु उनके मंथन के फलस्वरूप शास्त्र-सागर में से अमृत भी निकला और साथ में विष भी निकला। शास्त्र-सागर का अमृत क्या है -अहिंसा, संयम और तप। और विष क्या है-सम्प्रदायवाद, पंथवाद और बाड़ाबन्दी । यदि शास्त्र-सागर का मंथन तटस्थ वृत्ति से किया जाता है तो उसमें से अमृत ही निकलता है, विष नहीं, किन्तु शास्त्र-सागर का मंथन जब पंथवादी मनोवृत्ति से किया जाता है, तब उसमें से विष ही निकलता है, अमृत नहीं। तत्वदर्शी विद्वान का कर्तव्य है कि वह अपनी तटस्थ वृत्ति से तथा समभाव से शास्त्र-सागर का मंथन करके उसमें से शाश्वत सत्य का अमृत निकाल कर स्वयं भी पान करे और दूसरों को भी पान कराए । परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका अथवा हुआ तो बहुत कम हो सका । पंथवादी मनोवृत्ति ने अनेकान्त के अमृत की उपेक्षा करके एकान्तवाद के विष का ही पान किया। किन्तु दुर्भाग्य से वह उस विष को भी अमृत ही समझती रही। इसी के फलस्वरूप श्वेताम्बर और दिगम्बर पंथों को एवं सम्प्रदायों की अखाड़ेबाजी और परस्पर एक दूसरे के विरोध में शास्त्रार्थ की कलाबाजी भी यत्र-तत्र उभयपक्ष के ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध होती है । इस पंथवादी मनोवृत्ति ने धर्म, संस्कृति और दर्शन-शास्त्र को ही दूषित नहीं किया, बल्कि प्रभावशाली एवं युग-प्रभावक आचार्यों को भी अपना-अपना बनाकर उन पर अपनेपन की मुहर लगाने का प्रयत्न किया। उदाहरण के रूप में तत्वार्थसूत्र के प्रणेता वाचक उमास्वाति को ही लीजिए। दिगम्बर कहते हैं-उमास्वाति दिगम्बर थे और श्वेताम्बर कहते हैं-उमास्वाति श्वेताम्बर थे। इसी प्रकार आचार्य सिद्ध सेन दिवाकर के सम्बन्ध में भी उभय सम्प्रदाय में उन्हें अपना-अपना बनाने का वाद-विवाद चल रही है । दिगम्बर विद्वान कहते हैं-कि सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर थे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy