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१३० | अध्यात्म-प्रवचन
नहीं है । इसीलिए उसके जीवन की कुंठा ने, निराशा ने और अनास्था ने उसके दिव्य जीवन को ग्रस लिया है। मेरे विचार में आज के युग का सबसे बड़ा समाज-शास्त्र है विश्वबन्धुत्व, आज के युग का सबसे बड़ा धर्म है - विश्व - मानवता, आज के युग का सबसे बड़ा दर्शन है, विश्व चेतना | भोगवादी जीवन की इन्द्रधनुषी शोभा चिरस्थायी नहीं है, चिरस्थायी है एक मात्र आत्मा का दिव्य भाव । आत्मा का यह दिव्यभाव जब तक भू-मन एवं भू-जीवन का स्पर्श नहीं करेगा, तब तक मानवीय मन की बोध - शून्यता के स्थान पर सहज बोध नहीं आ सकेगा । जब तक विश्व का प्राणी- प्राणी मानवता के परम भाव के प्रति प्रेम की भावना से प्रेरित नहीं होगा, तब तक विश्व - जीवन संकट मुक्त नहीं हो सकेगा । जन-मंगल और जन-कल्याण की भावना मनुष्य के मन के अन्तराल में उदीयमान होते हुए भी, उसकी सफलता तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि मनुष्य स्वयं अपने जीवन को पावन एवं पवित्र न बना ले ? जीवन की पावनता और पवित्रता का मूल आधार क्या है ? उसका आदि स्रोत कहां है ? इस जीवन में वह पावनता और पवित्रता अंकुरित होकर पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो सकती है क्या ? ये प्रश्न आज के नहीं, चिरन्तन प्रश्न हैं । प्रत्येक युग क युग चेतना ने उक्त प्रश्नों का सुन्दर एवं सत्य समाधान पाने का प्रयास किया है । आज के युग की युग चेतना भी मानव-जीवन के उस पवित्र एवं पावन आदि स्रोत को प्राप्त करने के लिए आकुलव्याकुल बनी हुई है | मानव के मानस में जब तक सहज बोध के रवि का आलोकमय उदय नहीं होगा, तब तक उसके जीवन- गगन की रजनी का अन्त नहीं हो सकेगा । मानव अपने सहज स्वभाव से दिव्यता चाहता है, दिव्य बनने की उसकी अभिलाषा भी है, फिर भी तदनुकुल प्रयत्न न होने के कारण वह दिव्यता उसे आज तक प्राप्त नहीं हो सकी है, यदि अनन्त जीवन में कभी विद्युत प्रकाश के समान क्षणिक दिव्यता की प्राप्ति हुई भी है, तो वह स्थायी नहीं बन सकी । अध्यात्मवादी दर्शन के समक्ष सबसे विकट और सबसे विराट प्रश्न यही है कि जीवन की दिव्यता का आधार क्या है ? उक्त प्रश्न का एक ही उत्तर है, और एक ही समाधान है कि- सम्यक् दर्शन और श्रद्धान ही दिव्य भाव की दिव्यता का मूल आधार है । क्योंकि सम्यक दर्शन में अनन्त शक्ति है एवं अनन्त बल है । अनन्त काल की आदिहीन जन्म-मरण की परम्परा का उच्छेद सम्यक् दर्शन के अभाव
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