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________________ रत्नत्रय की साधना | ४३ पर जो कुछ चल रहा है, उसके अच्छे और बुरे परिणामों तो तौलने की तुलना हमारी बुद्धि ही है। मानव जीवन का सबसे बड़ा शास्त्र चिन्तन और अनुभव है । जिसे आज शास्त्र कहा जाता है, आखिर, वह भी तो किसी युग के व्यक्ति-विशेष का चिन्तन और अनुभव ही है । बुद्धि के बिना तो शास्त्र के मर्म को भी नहीं समझा जा सकता । इसलिए जीवन और जगत में शास्त्रों का भी शास्त्र बुद्धि को माना गया है । यदि बुद्धि न होती तो इन शास्त्रों का निर्माण भी कैसे होता ? और फिर जिन्हें हम शास्त्र कहते हैं, उनमें भी जहाँ-तहाँ परस्पर विरोधी बातों का उल्लेख मिल जाता है । वहाँ कैसे निर्णय करोगे ? यदि कहो कि बुद्धि और तर्क से, तब तो शास्त्र बड़ा नहीं, बुद्धि ही बड़ी रही और वस्तुतः बुद्धि ही सबसे बड़ी है । बुद्धि के बिना संसार का एक भी कार्य सफल नहीं हो सकता । जीवन और जगत के प्रत्येक व्यवहार में बुद्धि की बड़ी आवश्यकता है । यह माना कि शास्त्र बड़ा है, और उसकी शिक्षा देने वाला गुरु भी बड़ा है । किन्तु जरा कल्पना तो कीजिए - शास्त्र भी हो और गुरु भी हो, परन्तु शास्त्र के गम्भीर रहस्य को और गुरु के उपदेश के मर्म को समझने के लिए बुद्धि न हो तो क्या प्राप्त हो सकता है ? शास्त्र और गुरु केवल मार्ग-दर्शक हैं । सत्य एवं सत्य का निर्णय, अच्छे और बुरे का निश्चय, आखिर बुद्धि को ही करना है । एक ही शास्त्र के एक ही वचन का अर्थ करने में विचार-भेद हो जाने पर उसका निर्णय भी अन्ततोगत्वा बुद्धि ही करती है । शास्त्रों के अनेक वचन देश-काल और व्यक्ति-विशेष के सन्दर्भ में सामयिक भी होते हैं, त्रैकालिक नहीं । और इस उपयोगिता अनुपयोगिता का निर्णय, हजारों वर्षों बाद कौन करता है ? पाठक की विवेकशील बुद्धि ही उक्त निर्णय करने की क्षमता रखती है । भले ही आज हमारी बुद्धि पुराने महासागरों के सामने एक लघु बिन्दु के समान हो, परन्तु हमारा बिन्दु ही हमारे काम आएगा, जीवन की समस्याओं का फैसला उसे ही करना होगा ।" ज्ञानी एवं अनुभवी सन्त की इस तथ्य पूर्ण बात को सुनकर वे सब श्रद्धाशील भक्त और पण्डे बड़े प्रसन्न हुए । सन्त के अनुभव से अनुप्राणित तर्क के समक्ष वे सब नतमस्तक थे । सन्त के कहने का ढंग इतना मधुर एवं प्रिय था, कि सन्त की बात उन सब लोगों के गले आसानी से उतर गई और उन लोगों ने यह समझ लिया कि जीवन शास्त्र और गुरु का महत्व होते हुए भी, अन्त में सत्य एवं तथ्य का निर्णय बुद्धि ही को करना पड़ता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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