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विवेक दृष्टि | ६३
लिए उसके पास अवकाश ही नहीं रहता । वह तो एक ही बात सोचता है, जो कुछ कहा गया है उसे स्वीकार करो और उसका पालन करो । परन्तु परीक्षा - प्रधान साधक शास्त्र वचन को, महापुरुष की वाणी को और गुरु के कथन को अपनी बुद्धि की तुला पर तोलता है तथा अपने तर्क की कसोटी पर कसता है, फिर उसमें से जितना अंश अपने लिए वर्तमान में उपयोगी है, उतना ग्रहण कर लेता है और शेष को एक ओर रख छोड़ता है । आज्ञा में धर्म है, इस कथन का अर्थ यह नहीं है, कि जो कुछ कहा गया है वह ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया जाए। जैन दर्शन के अध्यात्म शास्त्र में यह कहा गया है, कि आज्ञा में धर्म अवश्य है, किन्तु यह तो विचार करो कि वह आज्ञा किसकी है, किसके प्रति है और उसके पालन से धर्म कैसे हो सकता है ? प्रत्येक सिद्धांत को पहले अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर कसो, फिर उसे अपने जीवन की उर्वर धरती पर उतारने का प्रयत्न करो, यही विवेक का मार्ग है, यही तर्क का पंथ है और यही ज्ञान का सच्चा एवं सीधा रास्ता है ।
मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी है। उसके पास विचार की एक अपूर्व शक्ति है । फिर वह क्यों उसके उपयोग से वंचित रहे ? यदि अन्तर् मानस में से ज्योति प्रकट नहीं होती है, तो फिर कितना भी शास्त्रस्वाध्याय कर लो, गुरु का उपदेश सुन लो, उससे किसी प्रकार का लाभ होने वाला नहीं है । इसके विपरीत जिस व्यक्ति को विशुद्ध atr और अमल विवेक प्राप्त हो गया है, उसका विचार स्वयं शास्त्र है, उसका विवेक स्वयं महापुरुष की वाणी है और उसका चिन्तन स्वयं गुरु का कथन है ।
आपने यह सुना होगा कि जब मरुदेवी माता ने यह जाना कि उसका पुत्र ऋषभ विनीता नगरी के बाहर उपवन में ठहरा हुआ है, तब पुत्र मिलन की तीव्र उत्कंठा एवं लालसा मरुदेवी माता के मन में जग उठी । बहुत काल से जिस पुत्र को उसने नहीं देखा था, आज अपने समीप आया जानकर वह उससे मिलने न जाए, यह कैसे सम्भव हो सकता था ? पुत्र की ममता का परित्याग, माता, अपने जीवन में यों सहज ही कैसे कर सकती है ? माता के हृवय में पुत्र के प्रति सहज प्रेम होता है। माता के हृदय के कण-कण में पुत्र के प्रति वात्सल्य भाव का अमृत रस रमा रहता है । मरुदेवी माता अपने पौत्र भरत
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