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सम्यकदर्शन के भेद
सम्यक् दर्शन क्या है ? सम्यक् दर्शन का क्या स्वरूप है ? अध्यात्मशास्त्र का यह एक महत्वपूर्ण विषय है । अध्यात्म-शास्त्र में कहा गया है कि धर्म का मूल सम्यक् दर्शन है । सम्यक् दर्शनरूप धर्म के बाद ही सम्यग् ज्ञान रूप धर्म होता है और सम्यक् दर्शन के बाद ही सम्यक् चारित्र रूप धर्म होता है। इसीलिए श्रद्धारूप धर्म को ज्ञानरूप धर्म और चारित्र रूप धर्म का मूल आधार कहा गया है। शुभ भाव, धर्म का सोपान नहीं है, सम्यक् दर्शन ही धर्म का प्रथम सोपान माना जाता है। जिस किसी भी आत्मा में सम्यकदर्शन की विमल ज्योति प्रकट हो जाती है, वहाँ मिथ्यात्वमूलक अन्धकार कभी ठहर ही नहीं सकता। अज्ञानवश आत्मा, यह मान लेता है कि शुभ भाव धर्म का कारण है, परन्तु तत्व-दष्टि से देखा जाए, तो शुभ भाव रागात्मक विकार है, वह धर्म नहीं है, और न धर्म का कारण ही है। सम्यक् दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व स्वयं धर्म भी है और अन्य धर्मों का मूल कारण भी है। मिथ्या दृष्टि जीव पुण्य को रुचि-सहित शुभभाव से नवम ग्रैवेयक तक चला जाता है, फिर वहाँ से निकलकर भवभ्रमण करता हुआ निगोद आदि में भी चला जाता है, क्योंकि अज्ञान-सहित शुभ भाव, तत्वतः पाप का मूल है। प्रायः अज्ञजन अशुभ में तो धर्म नहीं मानते । परन्तु
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