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________________ रत्नत्रय की साधना | ४१ जाता है। देखना और सुनना चेतना का सहज भाव है, किन्तु मनुष्य की चेतना पशु की चेतना से अधिक विकसित है, फलतः जहां पशु देख और सुन कर भी कुछ विशिष्ट विचार नहीं कर पाता, वहाँ बुद्धि का धनी मनुष्य जो कुछ देखता और सुनता है, उस पर गम्भीर एवं उदात्त विचार भी करता है। __सन्त ने देखा कि एक श्रद्धाशील भक्त गंगा के निर्मल प्रवाह में से एक लोटे में जल भरता है, उसे अपने दोनों हाथों में ऊँचा उठाकर सूर्य की ओर अपना मस्तक झुकाता है और जल-धारा छोड़ देता है। सन्त ने पूछा कि "यह क्या हो रहा है ?" ___ गंगा तट के पास खड़े पण्डों ने कहा कि “आपको पता नहीं ? सूर्य को जल चढ़ाया जा रहा है।" अनुभवी एवं ज्ञानी सन्त ने यह सब देखा, और सुना तो अपने मन में उठने वाले तर्क को वह रोक न सका। किन्तु उसकी अभिव्यक्ति सन्त ने अपनी वाणी के माध्यम से न कर अपनी कृति के माध्यम से की। वह सन्त गंगा की धारा में गया और कमण्डल में जल भर कर सूर्य से विपरीत दिशा की ओर फेंकने लगा। तट पर स्थित पण्डों ने और उनके श्रद्धाशील अनेक भक्तों ने इस अजीबो-गरीब नजारे को देखा तो हसने लगे। दो-चार पण्डे आगे बढ़े और मुस्करा कर सन्त से पूछने लगे-"महाराज, आप यह क्या कर रहे हैं ? सूर्य को गंगा-जल अर्पण न करके इधर कहाँ और किसे जल चढ़ा रहे हो? बहुत देर से हम आपके इस अनोखे कार्य को देख रहे हैं, पर कुछ समझ में नहीं आया कि आपका क्या तात्पर्य है ?" ____ अनुभवी एव ज्ञानी सन्त ने गम्भीर होकर पण्डों की बातों को सुना और मुस्करा कर बोले-"मैं बहुत दूर से आया है। मेरे देश में बहुत सूखा है, जल का अभाव है । अतः मैंने सोचा कि गंगा का जल बड़ा ही स्वच्छ और पवित्र है, क्यों न मैं यहाँ बैठा-बैठा गंगा के स्वच्छ एवं पवित्र जल को अपने देश के सुदूर खेतों में पहुँचा दूं ? मुझे सूर्य को जल नहीं चढ़ाना है, मुझे तो अपने देश के खेतों को जल पहुँचाना है। अतः अपने देश की ओर ही जल अर्पण कर रहा हूँ, ताकि मेरे देश के सूखे खेत हरे-भरे हो उठे।" यह सुनकर सब के सब भक्त और पण्डे हँस पड़े और बोले"मालूस होता है आपका दिमाग ठिकाने पर नहीं है । भला यहाँ दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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