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इन निर्वचनोंके परिदर्शनसे स्पष्ट हो जाता है कि लौकिक संस्कृतके आदिकाव्य रामायण में भी निर्वचन हुए हैं। इन निर्वचनोंका मूल उद्देश्य अर्थ स्पष्ट करना रहा है। तथापि अर्थान्वेषणमें सदृश धातुका योग प्रायः सर्वत्र प्राप्त है। कुछ ताद्धित प्रयोग आदिके द्वारा भी निर्वचन हुए हैं । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से या भारतीय–निर्वचन प्रक्रियाके अनुसार इन निर्वचनोंको पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि ध्वन्यात्मक पक्षकी उपेक्षा दीख पड़ती है। कुछ निर्वचन तो ध्वन्यात्मक दृष्टिसे भी संगत हैं | अतः इसके भाषा वैज्ञानिक महत्त्व उपेक्षणीय नहीं। स्पष्ट है पुराणमें प्रयुक्त इन संज्ञा पदोंके निर्वचन वैदिक साहित्यमें प्राप्त नहीं होते । यास्कने भी अपने निरुक्तमें इन शब्दोंको विवेचित नहीं किया है। राम, रावण, सुग्रीव, विश्रवा आदि शब्द कालान्तर के प्रतीत होते हैं। सन्दर्भ संकेत :
1. बा० का0 18|28-29, 2. बा० का0 70 37, 3. कि0 का0 13 |3, 4. अर० का0 31139, 5. अर0 का0 33|1, 6. युद्ध का0 20 121, 7. उत्त० का0 2 |31-32, 8. उत्त० का0 3 18 | (ज) महाभारतमें निर्वचनों का स्वरूप
महाभारत संस्कृतका विपुलकाय ग्रन्थ है। विश्वकी किसी भी भाषामें ऐसा विशाल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। विषयोंकी विपुलता इसकी अपनी विशेषता है।' संस्कृत साहित्यका तो यह उपजीव्य ही है। अनेक विषयोंकी उपलब्धि तो इसमें है ही, निर्वचन भी इसमें प्राप्त होते हैं । महाभारतके निर्वचनोंका परिदर्शन अपेक्षित है
“यो व्यस्य वेदांश्चतुरस्तपसा भगवानृषिः
लोके व्यासत्वमापेदे कार्णात् कृष्णत्वमेव च ।।2 इस श्लोकमें व्यास एवं कृष्ण शब्द विवेचित है। व्यस्यका सम्बन्ध व्याससे दिखलाया गया है। वि + अस् + अण् धातुके योगसे व्यास शब्द निष्पन्न होता है। वि + अस् धातुका योग व्यस्य एवं व्यास दोनों शब्दोंमें प्राप्त होता है। तपस्यासे वेदों का चतुर्धा विभाजन करनेके कारण ही व्यास कहलाये । इसी प्रकार कृष्ण शब्दके निर्वचनमें कार्णात् शब्द संकेतित है। कृष् धातुसे नक् प्रत्यय के द्वारा कृष्ण शब्द निष्पन्न होता है । कार्णात् शब्द में भी कृष् धातु का
३९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क