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भी देवता विषयक विवेचनमें इनका अधिकांश नामोल्लेख हुआ है। लगता है दैवत काण्ड पर इनका स्वतंत्र ग्रन्थ होगा। वायुपुराणके अनुसार शाकपूणिने तीन संहिताओंका प्रवचन किया।५६
निघण्टु- स्कन्द स्वामीका कथन है कि इन्होंने निघण्टु की भी रचना की।५७
निर्वचन सिद्धान्त :- ये वर्ण विकारकी स्थितिको निर्वचनमें स्वीकार करते हैं। साथही साथ वर्णागमको भी मानते हैं। ऋत्विज् शब्दमें ऋग् + यज्='ग' का 'त्' वर्ण विकार तथा व वर्णागम है। (छ) और्णवाभ
और्णवाभका स्मरण निरुक्तमें निरुक्तकारके रूपमें किया गया है. इनके संबंधमें जो कुछभी सामग्री उपलब्ध होती है उनसबोंका उल्लेख यास्कके निरुक्तमें है। निरुक्तमें और्णवाभका मत दर्शनीय है. उर्वी शब्दके निर्वचनमें उर्व्य ऊतिरित्यौर्णवाभः ।५. अर्थात् आच्छादनार्थक उMञ् धातुसे उर्वी बनता है तथा आच्छादनार्थक वृञ् धातुसे। अश्विनी शब्दके निर्वचनमें-अश्वेरश्विनावित्यौर्णवाभ:५९ अर्थात् अश्वोंसे अश्वि कहलाते हैं। त्रेधापदम्के संबंधमें इनका मत हैकि-समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभ:६० अर्थात् उदयगिरि पर उदय होता हुआ ये एकपद रखते हैं एकपद अन्तरिक्ष (मध्याह्न) में और अस्त होते समय अस्तंगिरि पर तृतीय पद रखते हैं।
ऊपरके अन्तिम उल्लेखसे इनके स्थानके सम्बन्धमें अनुमान कियाजा सकता है। 'इदं विष्णुर्विचक्रमे' की व्याख्यासे पता चलता हैकि ये गयासे पूर्ण परिचित अवश्य होंगे। गया विहार राज्यमें है जोएक धार्मिक एवं ऐतिहासिक नगरी है। वायु पुराण९१ के वर्णनोंके अनुसार यह नगरी गयासुर राक्षसके शरीरं पर अवस्थित है। यहांका विष्णुपदमन्दिर विश्वभरमें अपना धार्मिक अस्तित्व रखता है. और्णवाभ द्वारा प्रतिपादित ये तीनों स्थल गयामें अवस्थित हैं सारोहप्प, गयशिर एवं विष्णुपद। समारोहण गयास्थित क्षेत्रीय तीर्थ हैं। ऐसा लगता है और्णवाभ का संकेत इन्हीं तीनों स्थलोंका है। विष्णुपदमें भगवान विष्णुके चरण अंकित है जिनके दर्शनके लिए सम्पूर्ण विश्वके लोग आते हैं। विष्णुपद विष्णुके चरणका ही वाचक है। गयाके प्रति विशेष आकर्षण इनका अपने स्थानके प्रति आसक्तिका कारण है। ये निश्चयही यास्कसे पूर्ववर्ती हैं लेकिन इनका समय निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता।
रचनाएं :- निरुक्तमें प्राप्त निर्वचनोंके आधार पर कहाजा सकता हैकि इन्होंने
६२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क