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कित् प्रत्यय कर (द्वित्वकर) सस्निम् शब्द बनाया जा सकता है।
(२) वाहिष्ठ :- इसका अर्थ होता है अच्छी तरह ले जाने वाला। निरुक्तके अनुसार वाहिष्ठो वोढतमो' अर्थात् वह प्रापणे धातुके योगसे यह शब्द निष्पन्न होता है। अच्छी तरह ढोने वाला वाहिष्ठ कहलाता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे वह प्रापणे धातुसे तृच् प्रत्यय कर वोढ़ + इष्ठन्, वाहिष्ठः बनाया जा सकता है।
(३) नरा :- नरका अर्थ मनुष्य होता है। निरुक्तके अनुसार-नरा: मनुष्याः नृत्यन्ति कर्मसु१ अर्थात् वे अपने कार्य सम्पादनमें नाचते रहते हैं। अत्यन्त तत्परता से कार्य सम्पादन करते हैं। कार्य सम्पादनके समय अपने अंगों का इधर-उधर संचालन करते हैं। इस निर्वचनके अनुसार नरः शब्दमें नृत् गात्रविक्षेपे धातुका योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं है। इसमें व्यंजनगत औदासिन्य स्पष्ट है। अर्थात्मकताके आधार पर यह प्रतीत होता है कि यास्कके समयमें मनुष्य कार्य सम्पादनमें काफी गतिशील थे। व्याकरणके अनुसार नृ नये धातुसे अच् प्रत्यय कर नरः शब्द बनाया जा सकता है।
(४) दूत :- इसका अर्थ होता है सन्देश हारक। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं-१-दूतो जवतेर्वा अर्थात् वह गतिशील होता है। इसके अनुसार दूत शब्दमें गत्यर्थक जू धातु का योग है-जू + क्त = जूत:- दूतः (ज वर्ण का द में परिवर्तन) २-द्रवतेर्वा१ अर्थात् दिए गये कार्यों के लिए दौड़ता रहता है। इस निर्वचन के अनुसार दूत शब्द में गत्यर्थक द्रु धातु का योग हैद्रु+क्तद्रुत दूत (द वर्ण स्थित र लोप एवं आदि स्वर दीर्धीकरण) (३) वारयतेर्वा१ अर्थात् यह झगड़े आदि को शान्त करता है। इस निर्वचनके अनुसार वृआवरणे धातुसे ण्यन्त कर वारि तथा वारि का दू भाव + क्त = दूतः। दूत अनर्थों से हटाता है। उपर्युक्त समी निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टि से अपूर्ण हैं। द्वितीय निर्वचनमें भी पूर्ण ध्वन्यात्मकता नहीं। अर्थात्मक आधार समी निर्वचनोंका उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार दु मत्ती + क्त या दुङ् परितापे + क्त' प्रत्यय कर दूतः शब्द बनाया जा सकता है।
(५) वावशानः :- इसका अर्थ होता है चाहता हुआ। यह कृदन्त शब्द है। निरुक्तके अनुसार -वावशानो वष्टेर्वा वाश्यतेर्वाप अर्थात् कामना करता हुआ या आह्वान करता हुआ। इसके अनुसार वावशानः शब्दमें वश् कान्तौ या वाशृ शब्दे धातुका योग है।
२९१ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क