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ऊपर निकला हुआ होता है।८८ अन्तिम दो निर्वचन भाषा विज्ञानके अनुसार संगत है। इनके ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त हैं। कृत् धातुसे कण्टकमें मूर्धन्यीकरणका नियम लागू है। प्रथम निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखता है। व्याकरणके अनुसार कटि गतौ धातुसे ण्वल८९ प्रत्यय कर कण्टकः शब्द बनाया जा सकता है।
(६१) अग्नायी :- इसका अर्थ होता है अग्निकी पत्नी। निरुक्तके अनुसार अग्नाय्यग्ने: पत्नी४९ यास्क मात्र इसका विग्रह करते हैं। यह सामासिक शब्द है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त माना जायगा।
(६२) मुसलम् :- इसका अर्थ होता है. मूसल (समाठ)। निरुक्तके अनुसार मुहः सरम्० अर्थात् यह बार-बार गति करता है ऊपर नीचे जाता है। ओखल में बारबार गमन करनेके कारण मूसल कहलाया।९१ इसके अनुसार मुहः +सृ गतौ धातुसे मुसलम् शब्द निष्पन्न माना जायगा। महः सृ. सरम् = र का ल वर्ण परिवर्तन मुह का मु + सृ+सरम् = मुसलम्। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार मुस् खण्डने धातुसे वलच् प्रत्यय कर मुसलम् शब्द बनाया जा सकता है।९२
(६३) हविर्धाने :- इसका अर्थ होता है हवियों को ढोने वाली बैलगाड़ी। हविर्धाने हविर्धानका सम्बोधन पद है। निरुक्तके अनुसार- हविर्धाने हविषां निधाने४९ अर्थात् हविः को धारण करने वाला। इसके अनुसार हविधा धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। वैदिक कालमें सोमलताको गाड़ियों पर लादकर ले जाया जाता था। हविर्धान उसी सोमलताको ढोने वाली गाड़ीका वाचक है।
(६४) आर्नी :- इसका अर्थ होता है- धनुष कोटि। धनुषके किनारेका वह भाग जिसमें डोरी बंधी रहती है। निरुक्तके अनुसार (१) आर्नी आर्तन्यौ९० अर्थात् यह शब्द ऋत गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि धनुष कोटियां आपसमें झुकती हैं।९३ ऋत् से ऋ का गुण होकर आत्र्नी बन गया है। (२) वारण्यौ अर्थात् यह शब्द ऋ गतौ धातुके योगसे बनता है। गमन करने के कारण आत्ीं कहलाया, क्योंकि वाणोंको गति देते हैं ऋ-आत्नीं। (३) वारिषण्यौ५० अर्थात् आङ् उपसर्ग पूर्वक रिष् हिंसायां धातुके योगसे यह शब्द निष्पन्न होता है, क्योंकि ये शत्रओंको हिंसा करती है। आङ् + रिष् = आत्ीं। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। शेष निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्त्व है।
४४१: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क