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विज्ञानमय गर्भ किया है। क्योंकि सभी प्राणियों के अन्दर उसी का प्रकाश है।५५ यास्कने इसका विग्रह कर ही इसे स्पष्ट किया है। यास्कके अनुसार यह वव्रीहि समास माना जायगा। यों तो हिरण्यमयश्चासौ गर्भश्च इस प्रकार विग्रह कर कर्मधारय भी किया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार हिरण्यं हेमभाण्डं गर्भ उत्पत्तिस्थानमस्य वव्रीहि समास किया जा सकता है।
(३०) गर्भ :- इसका अर्थ होता है. कुक्षी , भ्रूण आदि। निरुक्त के अनुसार १. गो गृभेगणात्यर्थे ३८. गर्भशब्द स्तुत्यर्थक गृभ धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योकि यह सबों के लिए स्तुत्य है। २. गिरत्यनानिति वा३८ अथवा गर्भशब्द गृ निगरणे धातके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह अनर्थों को नष्ट करता है। उपर्युक्त दोनों निर्वचनों का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इन्हें संगतमाना जायगा। यास्क स्त्रीगर्भ को भी ग्रह उपादने धातुसे बना मानते हैं-यदा हि स्त्रीगणान् गृहणाति गणाश्चास्या गृह्यन्तेऽथ गर्भो भवति३८. जब स्त्री पुरूषके गणोंको ग्रहण करती है तथा पुरुष के द्वारा इसके गुणग्रहण किए जाते हैं तब गर्भ होता है। स्त्री पुरूषके परस्पर गुणोंके ग्रहणसे हर्षातिरेक में रजवीर्य संयोगसे गर्म होता है। इसके अनुसार गर्भ में ग्रह धातु स्पष्ट है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसका अर्थात्मक महत्व है। पाणिनीय पद्धति में भू धातु वैदिक एवं प्राचीन है इसका लौकिक रूप ह ने ग्रहण कर लिया। इसी प्रकार ग्रम भी वैदिक एवं प्राचीन धातु है लौकिक संस्कृत में ग्रह उसका रूप प्राप्त कर लेता है।५६ इससे स्पष्ट होता है कि भ एवं ह ध्वनियां परिवर्तित होती हैं। अतः ग्रह उपादाने धातुसे गर्भ शब्द मानना भाषा वैज्ञानिक आधारसे उपयुक्त होगा। यास्कके काल तक ग्रम् धातुका प्रयोग होता होगा तथा ग्रह धातुका भी। व्याकरणके अनुसार गृ + भन् प्रत्यय कर गर्भ: शब्द बनाया जा सकता है।५७
(३१) विश्वकर्मा :- यह परमात्मा या प्राण वायुका वाचक है। निरुक्त के अनुसार विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता५८ यह सभी जीवोंका कर्ता है। यह एक सामासिक शब्द है। इस निर्वचनका आधार भी सामासिक है। विश्व पूर्वपद है जो सर्व का वाचक है तथा उत्तर पद कर्मन् कर्ता का वाचक है। कर्मन् में कृ धातुका योग है। इस शब्दमें मात्र अर्थ स्पष्ट ही करना यास्कका उद्देश्य रहा है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार भी विश्वेषु विश्व वा कर्म यस्य स विश्वकर्मा माना जायगा। दुर्गाचार्य विश्वकर्मा को मध्यमस्थानीय देवता वायु मानते हैं क्योंकि वे भूत भविष्य एवं वर्तमान जगत् के कर्ता हैं। सभी कार्य-कलापोंमें वायु ही आधार है।५९
४५६:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क