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(३२) तार्यः :- यह वायु का वाचक है। निरुक्तके अनुसार- १- ताय॑स्त्वष्ट्रा व्याख्यात:५८ तार्क्ष्य की व्याख्या त्वष्टा से ही मान लेनी चाहिए। यास्कने त्वष्टा की व्याख्या नि. ८२ में की है। २. तीर्णे अन्तेरिक्षे क्षियति५८ अर्थात यह प्रस्तुत अन्तरिक्षमें निवास करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें तीर्ण + क्षि निवासे धातुका योग है। ३. तूर्णमर्थ रक्षति५८ यह शीघ्र ही कार्य सिद्ध करता है या जलकी रक्षा करता है।६० इसके अनुसार इस शब्दमें तूर्ण + रक्ष् धातुका योग है। ४- अश्नोतेर्वा५८ अथवा यह शीघ्र ही व्याप्त कर लेता है। इसके अनुसार इस शब्दमें तूर्ण + अश् व्याप्तौ धातुका योग है। सभी निर्वचनोंका ध्वन्यात्मक महत्त्व है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार- तार्थ + यञ् प्रत्यय कर तार्थ्यः शब्द बनाया जा सकता है।६१
(३३) मन्यु :- इसका अर्थ होता है वायुके गतिमेदसे उत्पन्न क्रोधा निरुक्तके अनुसार-मन्युर्मन्यतेदर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो बधकर्मणो वा५८ यह शब्द दीप्त्यर्थक, क्रोधार्थक या वधार्थक मन धातके योगसे निष्पन्न होता है। निरुक्तमें मन्य को मध्यमस्थानीय पढ़ा गया है। क्रोधार्थक दीप्त्यर्थक मन्यु शरीरके भीतर स्थित वायुके गतिभेदसे उत्पन्न होता है। सूक्ष्म दृष्टिसे मन्यु तथा क्रोध में अन्तर है। क्रोधमें व्यक्ति अपनी बुद्धि खो देता है लेकिन मन्युकी स्थिति में मनुष्य के पास बुद्धि यथावत् काम करती रहती है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार मन्- धातुसे युः प्रत्यय कर मन्युः शब्द बनाया जा सकता है।६२
(३४) मधु :- यह जल या पुष्परसका वाचक है। इसकी व्याख्या चतुर्थ अध्यायमें भी की जा चुकी है। मधुके संबंध यास्कका कहना है-मधु धमतेविपरीतस्य५८ अर्थात् मधु शब्द गत्यर्थक घम् धातुको विपरीत कर बनाया जाता है। धमका विपरीत मध + उ प्रत्ययुमधु। जल एवं रस गतिमान् होता है। चतुर्थ अध्यायमें मधु शब्द पुष्परसके अर्थमें विवेचित है जिसे मद् धातुसे निष्पन्न माना गया है।६३ दशम अध्यायमें मधु जलका वाचक है जिसके लिए यास्क धम् धातकी कल्पना करते हैं। यह निर्वचन अस्पष्ट है। मद्धातुसे मधु मानना भाषा विज्ञानकी दृष्टिमें अधिक संगत है। व्याकरणके अनुसार मन् ज्ञाने + उ,ध का अन्तादेश कर मधु शब्द बनाया जा सकता है।६४
(३५) सविता :- इसका अर्थ होता है- प्रेरक वायु,पार्थिव अग्नि, आदित्य। निरुक्त के अनुसार सविता सर्वस्य प्रसविता इसके अनुसार सविता शब्दमें सू प्रेरणे धातु का योग है क्योंकि यह सभी का प्रेरक है। आदित्य को भी
४५७:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क