Book Title: Vyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Author(s): Ramashish Pandey
Publisher: Prabodh Sanskrit Prakashan

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Page 452
________________ द्रवतीतिवा३यह वृष्टि करती हुई आगे बढ़ता है। इसके अनुसार इस शब्दमें मिवि सेचने द्रु गतौ धातुका योग है। ३- मेदयतेर्वा३८ यह पेड़ पौधों को स्निग्ध करती है। इसके अनुसार इस शब्दमें मिद् स्नेहने धातुका योग है। प्रथम दो निर्वचनों में दोदो धातुओं का प्रयोग हुआ है। वायुके अर्थमें मित्रका निर्वचन अर्थात्मक आधारसे युक्त है। तृतीय निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार भी संगत है- मिद् + रक्= मित्रः। भाषा विज्ञानके अनुसार तृतीय निर्वचनको उपयुक्त माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें मित्रः सूर्यके लिए प्रयुक्त होता है।४९ व्याकरणके अनुसार मिद् स्नेहने धातुसे कत्रः प्रत्यय कर मित्रम् शब्द बनाया जा सकता है।५० (२७) कृष्टि :- यह मनुष्यका वाचक है। निरुक्तके अनुसार १- कृष्टय इति मनुष्य नाम कर्मवन्तो भवन्ति३८ मनुष्य कर्मवान होते हैं। इसके अनुसार कृष्टि में कृ धातुका योग है। २. विकृष्टदेहा वा ये विकृष्ट देह विशेष रूप से संचालित शरीर वाले होते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें कृष् धातुका योग है। द्वितीय निर्वचन का अर्थात्मक एवं ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। प्रथम निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। व्याकरणके अनुसार कृष्टिः शब्द कृष् +क्तिच प्रत्यय कर बनाया जा सकता है (कृषत्यन्त वं विद्या लोचनाभ्यासादिभिरसौ) इसके अनुसार इसका अर्थ पण्डित होगा। कृष् + भावे क्तिन् प्रत्यय कर भी कृष्टिः शब्द बनाया जा सकता है जो मनुष्य का वाचक होगा। (२८) क :- प्राणवायुः। निरुक्तके अनुसार कः कमनो वा क्रमणो वा सुखो वा३८ यह कमनीय होता है। कामियों के काम्य (प्रयोजन) में साधन होता है या यह प्राणापानादिवायु के रूप में शरीरमें संक्रमण करता है या यह सुखप्रद है, सुख का वाचक है। प्रथम निर्वचनमें कम् कान्ती धातुकी सम्भावना की गयी है द्वितीय में क्रम् पादविक्षेपे धातुकी। तृतीय में मात्र अर्थ संकेतित है। कम् एवं क्रम् धातुका आद्यक्षर शेष कः प्राणवायुके अर्थमें प्रतिपादित है।सुखार्थक क: भी इन्हीं धातुओं से माना जा सकता है। यह शब्द एकाक्षर है। प्रथम निर्वचनमें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक संगति पूर्ण उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। शेष के अर्थात्मक महत्त्व हैं। व्याकरणकेअनुसार कै शब्दे या कव् दीप्तौ धातुसे डप्रत्ययकरकःशब्द बनाया जा सकता है।परकोष ग्रन्थों में क:५३ ब्रह्मा तथा कम्पमस्तक का वाचक है। (२९) हिरण्यगर्भ :- यह लोकेश, ब्रह्माका वाचक है। निरुक्त के अनुसार हिरण्यमयो गर्भोऽस्येति वा।३८ हिरण्यमय गर्भ है जिसका उसे हिरण्यगर्भ कहा जायगा। यह सामासिक आधार रखता है। दुर्गाचार्य ने हिरण्यगर्म का अर्थ ४५५: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क

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