________________
अर्थको शब्दका आत्मिक रूप। भाषाका जीवनके साथ अभिन्न सम्बन्ध है। जीवनकी प्राथमिक आवश्यकताके रूपमें भाषाको ही माना जा सकता है। भाषाकी उपेक्षा जीवनकी उपेक्षा है। संसारकी सम्पूर्ण वस्तुओंको मानसिक एवं शारीरिक दो रूपोंमें देखा जा सकता है। शरीरका सम्बन्ध भौतिक वस्तुओंसे है जबकि मानसका सम्बन्ध भौतिक वस्तुओंकी अपेक्षा अन्य रूपोंसे। निर्वचन इस प्रबल मानस पक्षका संवरण करता है जिसकी आवश्यकता केवल सैद्धान्तिक ही नहीं है। इसका व्यावहारिक क्षेत्र अधिक व्यापक है। भाषा का सम्बन्ध व्यवहारके साथ होनेसे उसकी परिचिति सर्वव्यापी हो जाती है। निर्वचन भाषाके गहनतम सूत्रोंको सुलझाता है जिसकी आवश्यकता भाषा विज्ञानके ज्ञानके लिए कम नहीं। शब्दोंका निर्वचन भाषा विज्ञानकी वह शाखा है जिसके बिना भाषा एवं भाषा विज्ञानका ज्ञान अधूरा रह जाता है। निर्वचनके लिए ध्वनिका महत्त्व कम नहीं। आधुनिक भाषा विज्ञानमें तो ध्वनि को ही मूल आधार माना गया है। निर्वचनोंमें ध्वनिकी उपेक्षा भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे उपयुक्त नहीं। ध्वनियोंका नियमानुसार परिवर्तन भाषा विज्ञानमें स्वीकृत है लेकिन नियमोंके विरुद्ध ध्वनिका रूपान्तरण ध्वन्यात्मक औदासिन्यका कारण माना जाता है। निर्वचनोंके क्रममें निरूक्तकार यास्कभी ध्वनि को कम महत्त्व नहीं देते। ज्ञातव्य है कि निरुक्तकारोंका मूल उद्देश्य शब्दोंके अर्थका विनिश्चय है। अतः वे अर्थात्मक आधारको ध्वन्यात्मक आधार की अपेक्षा अधिक महत्त्व देते है। कभी-कभी अर्थात्मक अनुसंधानमें वे लोग ध्वनि की उपेक्षा भी कर देते हैं।११ निरूक्तमें ध्वनि विज्ञान पर स्वतंत्र चर्चा नहीं है। निरुक्तकारों के द्वारा अर्थकी अपेक्षा ध्वनिका समादर अधिक नहीं है। प्रचानीकालमें ध्वनि विज्ञान प्रातिशाख्य एवं शिक्षाके अंग थे। व्याकरण ग्रन्थोंमें भी ध्वनिकी चर्चा हई है। निर्वचनके क्रम में निरुक्तकारोंने ध्वनिको स्थान दिया है क्योंकि ध्वनिके बिना निर्वचन स्वयं अपूर्ण होता।
अर्थ विज्ञानके साथ निर्वचनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। अर्थ शब्दका प्राण है। प्राणका महत्त्व भौतिक शरीरमें अधिक होता है। यदि यह कहा जाए कि प्राण के चलते ही शरीरका शरीरत्व सुरक्षित रहता है तो कोई अत्यक्ति नहीं होगी। शब्दों की रक्षा भी अर्थके कारण ही है। शब्दोंका प्रयोग भी अर्थ के कारण ही किया जाता है। निर्वचन का मूल उद्देश्य है अर्थोंका प्रकाशन। अर्थके महत्व को भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे भी भूला नहीं जा सकता क्योंकि सबों के मूलमें अर्थ ही विद्यमान है। यास्कने भी अर्थ को अत्यधिक महत्व दिया है। यही कारण है कि वे निर्वचन क्रममें अर्थ प्रकाशनके लिए ध्वनि नियमोंमें शिथिलता भी स्वीकार करते हैं तथा शब्दोंके निर्वचनमें अर्थके महत्त्वको हठपूर्वक सुरक्षित रखनेका प्रयास करते हैं।रजो भाषाविज्ञानकी दृष्टिसे सर्वांशत: स्वीकार्य नहीं।
४९९:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क