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परीक्षा एवं सुरक्षा का प्रयास विभिन्न सम्प्रदायोंके द्वारा होता था। उस समय भी वैदिक धर्मके विपक्षी अपनी स्थिति दृढ़ करनेमें संलग्न थे। वे लोग वैदिक मन्त्रोंकी प्रामाणिकतामें संदेह करने लग गये थे। वेदांगोंकी रचनाके समय आने वाली वैदिक पीढ़ियोंकी वेदसे क्रमिक असम्पृक्तता दृष्टिगोचर हो रही थी। ऐसी स्थितिमें यही कहा जाने लगा कि या तो वेदके मन्त्रोंमें अर्थ है ही नहीं या इसके अर्थ की जानकारी व्यक्तियोंको नहीं है। इन प्रश्नोंके उत्तरमें निरुक्तका कितना महत्त्व है यह कहा नहीं जा सकता। यास्क इसी सांस्कृतिक संक्रमण के समय के प्रमुख निरुक्तशास्त्री हैं जिन्होंने तत्कालीन एवं भविष्यमें उठनेवाली शंकाओं के समाधानकी सफल चेष्टा की है।
निर्वचन आजभी भाषा विज्ञानके विशिष्ट अंगके रूपमें मान्य है। भारतीय भाषा विज्ञानमें निर्वचनों का पृथक् स्थान एवं अस्तित्व रहा है। शब्दोंके अर्थान्वेषणसे सम्बद्ध यह शास्त्र अन्य शास्त्रोंकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक माना जा सकता है। निर्वचनके लिए प्रयुक्त विविध शब्द भारतीय साहित्यमें दृष्टिगोचर होते हैं। निर्वचन एवं निरुक्त शब्दोंकी भी ऐतिहासिकता है। इन शब्दोंका विवेचन प्रकृतशोध प्रबंधके प्रथम अध्यायमें ही किया जा चुका है। वहीं पर भाषा संबंधी विवेचनोंको भी प्रस्तुत किया गया है क्योंकि भाषाका मनुष्य के साथ अविनाभाव संबंध है। भाषाके साथ निर्वचन शास्त्र का भी इसी प्रकार का संबंध माना जा सकता है।
भारतीय निरुक्त्तकारोंका इतिहास महत्त्वपूर्ण है। निश्चय ही भारतमें निरुक्तकारोंकी विशद परम्परा है। वैदिक ऋषियोंके बाद आचार्य यास्कने इस क्षेत्रमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की । यास्कके निरुक्तके अतिरिक्त निवर्चन शास्त्रपर किसी दूसरे निरुक्तकारके निरुक्त ग्रन्थकी उपलब्धि आज नहीं होती। भारतमें सांस्कृतिक संक्रमण अधिक हुए हैं। लगता है विविध कारणोंसे अन्य निरुक्त ग्रन्थ नष्ट हो गए या अन्धकारमें विलीन हो गये। यह कहना इसलिए उचित प्रतीत होता है क्योंकि स्वयं यास्कने अपने निरुक्तमें पूर्ववर्ती एवं तत्कालीन चौदह निरुक्तकारों की चर्चा की है जिनका सिद्धान्त किसी न किसी रूपमें उल्लेखनीय रहा है। यास्कभी उनके सिद्धान्तोंसे प्रभावित हुए हैं। निर्वचन शास्त्र की परम्परा में औपमन्वय, औदुम्बरायण, वार्ष्यायणि, गार्ग्य, शाकपूणि, और्णवाभ, गालव, तैटिकी, क्रौष्टुकि, कात्थक्य, स्थौलाष्टीवि, आग्रायण, चर्मशिरा, शतवलाक्ष्य प्रभृति निरुक्तकार समादृत हैं जिनके सिद्धान्तों की चर्चा स्वयं यास्क ने की है या कुछ शब्दोंके निर्वचन के समय इन आचार्यों के मत का उल्लेख किया है इन आचार्यों के समय, परिचय एवं कृतियों का उल्लेख एकत्र व कहीं प्राप्त नहीं होता । प्रकृत शोध प्रबंधके तृतीय
४९७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क