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निर्वचन प्रक्रिया से प्रायः शब्दों के निर्वचन संगत हैं। निरुक्त सम्प्रदायमें मान्य सिद्धान्तोंके अनुसार पंचविध निरुक्त प्रशस्त है। फलत: यास्कने इस सिद्धान्त को पूर्णरूपेण अपनाया है। यही कारण है कि निर्वचन प्रक्रिया से सर्वथापूर्ण भी निर्वचन भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे अपूर्ण सिद्ध होते हैं।
इस अध्यायके प्रत्येक पदों के निर्वचनोंका मूल्यांकन द्रष्टव्य है :
(१) सोम :- यह एक लता विशेष औषधिका वाचक है। चन्द्रमाके लिए भी इसका प्रयोग होता है। सोम लता हेमवान् या मुंजवान पर्वत पर उत्पन्न होती है। निरुक्तके अनुसार औषधिः सोमः सुनोतेर्यदेनमभिषुण्वन्तिर अर्थात् यह औषधि वाचक सोम शब्द षु अभिषवे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इसका अमिषवन किया जाता है, यज्ञके समय इसका रस चुलाया जाता है। सोमलता को कूटकर रस निकाला जाता है जिसे सोमाभिषव कहते हैं। सोम इन्द्रका सर्वाधिक प्रिय पेय है। यज्ञोंके अवसर पर ऋत्विज, यजमान आदि भी इसका पान करते हैं। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। सोम चन्द्रमाका भी वाचक है क्योंकि दोनोंमें रूप विशेष की एकता है। सोम औषधि के पत्र चन्द्रकलाके साथ-साथ घटते एवं बढ़ते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा पूर्णिमाकी रात्रिमें पूर्णकलाओंसे युक्त रहता है उसी प्रकार सोम लता भी १५ फ्तोंसे युक्त रहती है तथा कलाहीन चन्द्रमाकी भांति अमावाश्या को पत्र विहीन भी। यास्कके अनुसार औषधि सोमका वर्णन वेदों में गौण रूपमें अधिक प्राप्त होता है तथा मुख्य रूपमें कम पाया जाता है।५ व्याकरणके अनुसार षुधातु से मन् प्रत्यय कर सोम शब्द बनाया जा सकता है। अवेस्तामें सोम शब्द के लिए (Hauma) होमका प्रयोग प्राप्त होता है।
(२) चन्द्रमा :- चन्द्र। निरुक्त के अनुसार (१) चन्द्रश्चायन द्रमति यह ऊपर स्थित सभी प्राणियों को देखता हुआ गमन करता है। इसके अनुसार इस शब्द में चाय पूजा निशामनयोः धातु + द्रम् गतौ धातुका योग है- चाय्द्रम् = चन्द्रः चन्द्रमा। (२) चन्द्रो माता वह दीप्तियुक्त एवं काल निर्माता है। इसके अनुसार इस शब्दमें चन्द्र +मा माने धातुका योग है। (३) चाद्रं मानमस्येति वा अर्थात यह चान्द्र वर्ष का निर्माण करने वाला है। इसके अनुसार इस शब्दमें चान्द्र+ मान् का योग है। चान्द्र का ह्रस्व होकर चन्द्र तथा मान को मा= चन्द्रमा। द्वितीय निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। शेष निर्वचनों का अर्थात्मक महत्त्व है। तृतीय निर्वचन से स्पष्ट होता है कि चान्द्र वर्ष आदि का कारण ४६४:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क