Book Title: Vyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Author(s): Ramashish Pandey
Publisher: Prabodh Sanskrit Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ विश्व . १२१।८३, ३२ . वृहस्पति : सुराचार्यो गीष्पतिर्धिषणो गुरू: अ. को . १।३।२४, ३३. द्र.वै .इ. भाग-२ पृ. ७८, ३४. ऋ. १०१६८८, ३५. पारस्कर प्रभृतीनि च संज्ञायाम्- अष्टा. ६।१/१५७ द्र- हलायुध-पृष्ठ६३६, ३६. अत्यविचमि. उणा. ३।११७, ३७. पारस्कर प्रभृतीनि च संज्ञायाम् अष्टा ६।१।१५७, ३८. नि. १०२, ३९. वै. इ. भाग-२-पृ. २३५, ४० हला. २५९ पृष्ठ, ४१. हला. पृ. ६०६, ४२ . हला. को. पृ. ६०६, ४३. इण्शीभ्यां वन्- उणा 919५०, ४४. षष्ठयाः पतिपुत्रपृष्ठपारपदपयस्पोषेषु- अष्टा. ८1३1५३, ४५. नि. ८।२, ४६. ऋ. १०.१४।१, ४७. ऋ. १/६६ ४ ४८ पचाद्यच्- अष्टा ३1919३४, ४९. अ.को. ३।३।१६७, ५०. अमिचिमिदिशसिभ्य क्त्रः :- अष्टा ४।१।६४, ५१. कमनो भवति। कामिनां काम्येषु अर्थेषु साधनं भवति नि. दु.बृ. १०।२ ५२. अन्येभ्योऽपि . वा. ३ २ १०१, ५३. अभि. चिन्ता २।१२५, अ.पुरा. - ३४८, ५४. अभि. चिन्ता. ३।२३०, ५५. शरीरेन्द्रिय मनो बुद्धिभावेनैतमपेक्ष्य परमात्मानं च विज्ञानप्रकाशमात्र सतत्वं सर्वविशेषहारित्वात् हिरण्यगर्भमपेक्ष्य तत्प्रकृतित्वं च क्षेत्रज्ञस्यापेक्ष्य सोऽस्य हिरण्यमयो हिरण्यप्रकृति गर्भ इति हिरण्यगर्भ नि. दु.वृ. १०।२, ५६. अष्टा. ८|२।३२ पर. वा. हग्रहोर्भच्छन्दसि ५७. अर्तिगृभ्यां भन्उणा. ३।१५२, ५८. नि. १०1३, ५९. नि. दु.वृ. १०३, ६० तूर्णम् उदक रक्षतीतिवा-नि. दु.वृ. १०३, ६१. गर्गादिभ्यो यञ्- अष्टा. ४1919०५, ६२. मनिजनिदसिभ्यो युः उणा. ३।२०, ६३. नि. ४19, ६४. हला. पृ. ५११, ६५. आदित्योऽपि सवितोच्यते - नि. १०३, ६६. अष्टा ३/१/१३३, ६७. असुरिति कथं? अस्यति अनर्थान् अस्ताश्चास्यामर्था इति वा नि. दु.वृ. १०1३, ६८. नि. ३।२, ६९. हला. पृ. १४४, ७०. ऋ. १०।१०८।१ नि. ११३, ७१. स्तुवोदीर्घश्च- उणा ३।२५ इति प:, ७२. स्त्यै शब्दसंघातयोः । स्त्यः सम्प्रसारणमूच्च इति य प्रत्ययः । तत्सन्नियोगेन यकारस्य सम्प्रसारणं परपूर्वत्वे ऊकारादेशश्च सा.भा. ऋ. १ २४ ७, ७३. हसिमृग्रिण- उणा ३४८६, ७४. नि. १०।४, ७५. अजेर्व्यघञपो:- अष्टा २|४|५६, ७६. धापृवस्यज्यतिभ्योनःउणा. ३।६, ७७. किंजरयो : श्रिण:- उणा. ११४, ७८. दानार्थात् शिशीतेर्वा पुरुषेण स्त्रियै धारणाय दीयते - नि. दु.वृ. १०४, ७९ . शः कित् सन्वच्च-उणा. १।२०, ८०. अष्टा. ३।४।७८, ८१. उन्नेरिच्यादे:- उणा १।१२. · (ङ) निरुक्तके एकादश अध्यायके निर्वचनोंका मूल्यांकन निघण्टु का पंचम अध्याय दैवत काण्ड है। इस अध्यायके पंचम खण्ड में देवताओं से सम्बद्ध ३६ पद संकलित हैं। इन पदों का निर्वचन निरुक्त के ४६२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क

Loading...

Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538