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निष्पन्न होता है। यहां ल का र वर्ण में परिवर्तन हो गया है। रलयोरभेदः का सिद्धान्त यास्कको मान्य है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार लिह् + झि = लिहन्ति, रिंहन्ति बनाया जा सकता है।८०
(४४) असुनीति :- यह प्राणवायुका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - असुनीतिरसू न्नयति७४ इस शब्दमें असुन् + नी प्रापणे धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
(४५) इन्दु :- यह चन्द्रमाका वाचक है। निरुक्तके अनुसार इन्दु रिन्धेरूनत्तेर्वा ७४ इन्दु शब्द इन्धी दीप्तौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यह प्रकाशित होता है। अथवा यह शब्द उन्दी क्लेदने धातुके योग से निष्पन्न होता है। क्योंकि वह स्निग्ध करता है। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । द्वितीय निर्वाचनका अर्थात्मक महत्त्व है। व्याकरणके अनुसार उन्दी क्लेदने धातुसे उ प्रत्यय कर इन्दुः शब्द बनाया जा सकता है।
(४६) पन्च्छेप :- परूच्छेप एक ऋषि हैं। निरुक्तके अनुसार पर्ववच्छेपः अर्थात् जिसका प्रजनन महान् है । २- परूषि परूषि शेपोऽस्येति वा७४ अर्थात् इसके प्रत्येक अंगमें शेप का योग है। प्रथम निर्वचनके अनुसार पर्वन् + शेप तथा द्वितीय निर्वचनके अनुसार परूष्+शेप पदखण्ड है। द्वितीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक महत्त्व रखता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। प्रथम निर्वचन में ध्वन्यात्मक औदासिन्य है।
(४७) प्रजापति :- इसका अर्थ होता है प्रजापालक । निरुक्तके अनुसार प्रजापतिः प्रजानां पाता वा पालयिता वा ४४ वह प्रजा का रक्षक होता है या पालन कर्ता होता है। इसके अनुसार प्रजापतिः शब्दमें प्रजा + पा रक्षणे या पालने धातुका योग है। यह सामासिक आधार रखता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसार प्रजानां पतिः प्रजापतिः तत्पुरुष समास है।
(४८) बुध्नम् :- यह अन्तरिक्षका वाचक है। निरुक्त के अनुसार बुध्न मन्तरिक्षम् वद्धा अस्मिन् धृता आपइति वा७४ इसमें जल बंधे रहते हैं। या इसमें रखे रहते है। इसके अनुसार इस शब्दमें बन्ध् बन्धने धातुका योग है। बुधनका अर्थ शरीर भी होता है। इदमपीतरद् वुध्नमेतस्मादेव । वद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति७४ शरीर वाचक बुघ्न शब्द भी उपर्युक्त रीतिसे ही व्याख्यात है, क्योंकि शरीरमें प्राण बंधे हैं या शरीर में प्राण धारण किया गया है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे
४६०: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क