Book Title: Vyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Author(s): Ramashish Pandey
Publisher: Prabodh Sanskrit Prakashan

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Page 482
________________ जायगा। व्याकरणके अनुसार पुञ् + इ = पविः शब्द बनाया जा सकता है।४६ (२७) पवीरवान् :- यह इन्द्रका नाम है। निरुक्तके अनुसार पविः शल्यो भवति यद्धिपुनाति कायं तद्वत्पवीरमायुधं तद्वानिन्द्रः पवीरवान्३४ अर्थात् पवि बज्र को कहते हैं क्योंकि वह शरीर को फाड़ देता है उस पवि से युक्त पवीर आयुध कहलाता है। पवीर शब्द में मत्वर्थीय र प्रत्यय है। पुनः तद्वान् अर्थमें वतुप् प्रत्यय के द्वारा पवीरवान् शब्द बनाया गया। अर्थात् पवीर (वज्रायुध) से जो युक्त है उसे पवीरवान कहा जायगाइस निर्वचनका ध्वन्यात्मकएवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है।भाषाविज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।। (२८) दध्यङ् :- यह आदित्यका वाचक है। निरुक्तके अनुसार दध्यङ् प्रत्यक्तोध्यानमितिवा३४ ध्यान या प्रकाशनमें लगा हुआ है। प्रत्यक्त का द तथा ध्यानका ध्यङ् बन कर दध्यङ् शब्द बना है। (२) प्रत्यक्तमस्मिन् ध्यानमितिवा३४ अथवा इसमें ध्यान लगा हुआ होता है। इसमें भी प्रत्यक्त+ध्यानका ही योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त नहीं है। इसका मात्र अर्थात्मक महत्व है। (२९) मनु :- यह संज्ञा पद है। आदित्यके लिए इसका प्रयोग हुआ है। निरुक्तके अनुसार- मनुर्मननात्३४ मनु शब्दमें मन् ज्ञाने धातुका योग है। मनन करने के कारण मनु कहलाया।४७ यास्कके अनुसार मन् धातु वधार्थक भी है। इसके अनुसार मन (आदित्य) का अर्थ होगा रोगोंका नाश करने वाला। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार मन् ज्ञाने + उ: प्रत्यय कर मनुः शब्द बनाया जा सकता है।४८ (३०) घृतस्नू :- इसका अर्थ होता है घी टपकाने वाली। निरुक्तके अनुसार (१) घृतस्नू: घृतप्रस्नाविन्य:४९ इस शब्दमें घृत+स्ना धातुका योग है इसके अनुसार इसका अर्थ होगा घृत टपकाने वाली। (२) घृत प्रस्ताविन्य:४९ यह शब्द घृत + त्रु धातुके योगसे निष्पन्न होता है। तदनुसार अर्थ होगा घृत प्रस्रवण करने वाली। (३) घृतसानिन्य:४९ यह शब्द घृत + सन् धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा घृत बांटने वाली। (४) घृतसारिण्यः।४९ इस शब्दमें घृत + सृ धातुका योग है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा घृत वहाने वाली। सभी निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्व है। ध्वन्यात्मक दृष्टिसे कोई भी पूर्ण नहीं है। (३१) सप्तऋषयः :- सप्त की व्याख्या चतुर्थ अध्यायमें तथा ऋषिः की व्याख्या द्वितीय अध्यायमें की जा चुकी है। यहां सात रश्मियों या इन्द्रियों का वाचक है। सप्त शब्द सृता संख्याके द्वारा, तथा ऋषि: शब्द ऋषिदर्शनात् के ४८५:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क

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