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ही है। अर्थात अक्षरका समदाय ही तो शब्द या वाणी है। व्याकरणके अनसार इसे न-अ + क्षर+अच् प्रत्यय कर या अश् व्याप्तौ धातु से सर:९ प्रत्यय कर अक्षर शब्द बनाया जा सकता है।
(५) ऋक् :- यह स्तुति परक मन्त्र का वाचक है। वेदमें प्रयुक्त मन्त्रको भी ऋक् कहा जाता है। ऋक् से ऋग्वेदका भी अर्थ बोध होता है। निरुक्तके अनुसारयदेनमर्चन्ति' अर्थात् इसकी पूजा करते हैं। इसके अनुसार ऋक शब्दमें अर्च धातुका योग है। प्रकृत प्रसंग में ऋक् आदित्यका वाचक है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। क्योंकि आदित्यकी भी पूजा करते हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। ऋचाओं के अर्थमें ऋच्यते स्तूयते अनया वाण्या सा ऋक किया जा सकता है क्योंकि इन ऋचाओं से देवताओं की पूजा की जाती है या स्तुति की जाती है।व्याकरणके अनुसार ऋच् स्तुतौ धातुसे क्विप् प्रत्यय कर ऋक्शब्द बनायाजा सकता है।
(६) अक्षः :- इसका अर्थ होता है गाड़ीका धूरा। निरुक्तके अनुसार अक्षोयानस्य अजनात्' अर्थात् यह शब्द अङ्ग् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है। क्योंकि वह गतिमान होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार अक्ष +अच्११ प्रत्यय कर अक्ष : शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग कई अर्थों में होता है|१२ वेद में भी अक्ष का प्रयोग जूआ खेलने के पाशा के अर्थमें हुआ है।
(७) ओहब्रह्माणः :- तर्कसे ब्रह्म का ज्ञाता। निरुक्तके अनुसार-ऊह एषां ब्रह्म इतिवा अर्थात् तर्क से ब्रह्मको जानने वाला या तर्क ही इन विद्वानोंका ब्रह्म है। ऊह तर्क का वाचक है। ब्रह्म ज्ञानका प्रतीक है। इस प्रकार ऊह + ब्रह्मके योग से ओहब्रह्माणः शब्द बना है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार- उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा।
-: सन्दर्भ संकेत :१. नि. १३।१, २. इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः-अष्टा ३।१।१३५, ३. दि. इटी.पृ.८८,४. ओमित्येषा वागिति शाकपूणिः। ऋचश्च हयक्षरे परमे व्यवने धीयन्ते नाना देवतेषु च मन्त्रेषु- नि. १३।१, ५. एतद्धवा एतदक्षरं यत् सर्वां त्रयीं विद्यां प्रति प्रति इति च ब्राह्मणम्- कौ. ब्रा. ६।१२ (नि. १३१) एतदेवाक्षरं ब्रह्म ह्येतदेवाक्षरं परम्। एतदेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्- नि. १३।१, ६. आदित्य इति पुत्रः शाकपूणे:। एष भवति यदेनमर्चन्ति तस्य यदन्यन्मन्त्रेभ्यस्तदक्षरं भवति-नि. १३।१, ७. तत् प्रकृतीतरद् वर्तनसामान्यादित्ययं- नि. १३।१, ८. पचाद्यच्- अष्टा ३।१।१३४, ९. अशे:
४९०:व्युत्त्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क