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सर:-उणा.३७०, १०. वा. ३1३।१०८, ११. पचाद्यच- अष्टा. ३।१।१३४, १२. अक्ष: कर्षे तषे चक्रे शकट व्यवहारयोः। आत्मज्ञे पाशके चाक्षं तत्ये सोवर्चलेन्द्रिये। विश्व.को. १८२।२, १३. महाभाष्य-१।१.
(ज) चतुर्दश अध्यायके निर्वचनोंका मूल्यांकन
देवता संबंधी एवं यज्ञ संबंधी मंत्रों की व्याख्या करनेके बाद इस अध्याय में ऊर्ध्व मार्ग गति की व्याख्या की गयी है। इस प्रकार इस अध्यायमें यास्कका उद्देश्य स्वतंत्र रूपमें निर्वचन करना नहीं रहा है। प्रसंगतः प्राप्त कुछ पदोंके निर्वचन कर देते हैं। इस अध्यायमें कुल आठ शब्दोंके निर्वचन प्राप्त होते हैं। इन शब्दों में ज्ञाता, सखा, गृधः, पदवी, वेदः, आपः तथा हंसः भाषा विज्ञान की दृष्टि से पूर्ण संगत हैं। हंस शब्दकी व्याख्या इसके पूर्व भी की जा चुकी है लेकिन यहां पुन: इसके व्यापक अर्थ की ओर संकेत करते हुए निर्वचन किया गया है। कवीनाम् का निर्वचन इस अध्यायमें किया गया है लेकिन यह निर्वचन अस्पष्ट है। इस अध्यायके प्रत्येक पदोंके पृथक् मूल्यांकन द्रष्टव्य है .
(१) ज्ञाता :- इसका अर्थ होता है जानकार, जानने वाला। निरुक्तके अनुसार ज्ञाता ज्ञायते:१ अर्थात् यह शब्द ज्ञा ज्ञाने धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार ज्ञा अवबोधने धातुसे क्तर प्रत्यय कर ज्ञात: ज्ञाता : शब्द बनाया जायगा। ज्ञा + तृन् प्रत्यय कर भी ज्ञात-ज्ञाता शब्द बनाया जा सकता है।
(२) सखा :- इसका अर्थ होता है मित्र। निरुक्त्तके अनुसार-सख्यते:१ अर्थात् यह शब्द सख्या प्रकथने धातुके योगसे निष्पन्न होता है। समान ख्याति वाले को सखा कहा जायगा। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार- समान + ख्या + इञ् (टि एवं य का लोप तथा समान का स भाव होकर सखि- सखा शब्द बनाया जा सकता है।
(३) कवीनाम् :- यह षष्ठ्यन्त पद है। इसका अर्थ होता है कवियों का। निरुक्तके अनुसार-कविनाम् कवीयमानानाम्।' अर्थात् इस निर्वचन में कवीयमान से कवि माना गया है। यह निर्वचन अस्पष्ट है। कव् धातुका संकेत मात्र प्राप्त हो जाता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जायगा। व्याकरण के अनुसार कवते सर्वं जानाति, सर्वं वर्णयति सर्वतोगच्छति वा- कव्
४९१:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क