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(३) वरूण :- यह जल देवताका नाम है। निरुक्तका अनुसार
वृणोतीति सतः अर्थात् यह शब्द वृ वरणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। क्योंकि वह (मेघ समूह) आकाशको आवृत करता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है ।। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसार वृञ् करणे धातुसे उनन् प्रत्यय कर वरुण शब्द बनाया जा सकता है।
(४) कबन्धम् :- इसका अर्थ मेघ होता है। निरुक्तके अनुसार - कबन्धम् मेघम्। कवनमुदकं भवति तदस्मिन् धीयते ' कवनका अर्थ जल होता है तथा वह इसमें रखा जाता है यानि मेघ । इसमें कवन + धा धातुका योग है। कबन्घका अर्थ जलभी होता है - उदकमपि कबन्धमुच्यते बन्धिरं निभृतवे कमनिभृतं च प्रसृजति यह अनिभृत अर्थ वाले बन्घ् धातुसे निष्पन्न हुआ है क्योंकि यह (जल) चंचल होता है। यह सुख कारक है। प्रथम एवं द्वितीय निर्वचनोंका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसार कम् + बन्घ् + अण् प्रत्यय कर कबन्धः शब्द बनाया जा सकता है।" शिर रहित धड़ को भी कबन्ध कहा जाता है । ६
(५) रूद्र :- यह वायुका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - रूद्रो रौतीति सतः १ रूद्र शब्द रू शब्दे धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है क्योंकि यह शब्द करता है। (२) रोरुप्यमाणो द्रवतीतिवा१ अधिक शब्द करता हुआ गमन करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें रू शब्दे एवं द्रु धातुओंका योग है। (३) रोदयतेर्वा यह शब्द रूदिर् अश्रु विमोचने धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है क्योंकि यह शत्रुओंको रूलाता है यास्कके प्रथम एवं तृतीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें संगत माना जायगा । शेषका अर्थात्मक महत्त्व है। रूद्रके रोंनेकी बातकी पुष्टि यास्क विभिन्न संहिताओंके उद्धरणसे करते है ।" काठक संहिताके अनुसार उस रूद्रने प्रजापतिको वाणसे बींघ दिया पश्चात् पश्चात्ताप करता हुआ रो पड़ा। इस आधार पर रोदीतीति रूद्र भी कियाजा सकता है। रूद्र को रोने की बात ऐतिहासिक आधार रखता है। अतः इस निर्वचनका आधार ऐतिहासिक माना जायगा । व्याकरणके अनुसार रूदिर् अश्रु विमोचने धातुसे रक् प्रत्यय कर रूद्रः शब्द बनाया जा सकता है। वेदमें अग्निको भी रूद्र कहा गया है (ऋ. १।२७।१०) ९ लौकिक संस्कृतमें रूद्र शब्द प्रायः शंकरके लिए प्रयुक्त हुआ है।१° गुणसादृश्यके आधार पर शंकर भी कालान्तरमें रूद्र कहलाये ।
(६) तिग्मम् :- इसका अर्थ होता है तीक्ष्ण । निरुक्तके अनुसार - तिग्मं
४४७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क