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तनय शब्दका निर्वचन पौत्रके अर्थमें किया है। लगता है यास्कके समयमें तनय शब्द पौत्रके अर्थ में भी प्रयुक्त होता था। यास्क रूद्र एवं इन्द्र शब्दोंके निर्वचनमें ऐतिहासिक आधार को भी अपनाते है। वे इन्द्र शब्दके निर्वचनमें आग्रायणके सिद्धान्तको उपस्थापित करते है जो ऐतिहासिक एवं धार्मिक आधार पर आधारित
है।
यास्क विवेचित इस अध्यायके कुछ शब्द सामासिक हैं। इनके निर्वचनों में सामासिक आधार अपनाया गया है। ब्रह्मणस्पतिः, हिरण्यगर्मः, विश्कर्मा, हिरण्य स्तूपः, और प्रजापतिः सामासिक आधार रखते हैं। पर्जन्य शब्दमें अर्थ विस्तार पाया जाता है। उत्सः शब्द जो जलप्रस्त्रवणं स्थान का वाचक है, मेघके अर्थमें प्रयुक्त है। इसका आधार लक्षणा है।
यास्क कुछ शब्दोंको पूर्व व्याख्यात है, कहकर आगे बढ़ जाते है। वस्तुतः कुछ शब्द निरुक्तमें एक से अधिक स्थलोंमें प्रयुक्त है तथा कुछ शब्द एक से अधिक स्थलोंमें व्याख्यात भी है।
इस अध्यायके प्रत्येक शब्दोंके निर्वचनोंका मूल्यांकन द्रष्टव्य है -
(१) वायु :- वायु मध्यम स्थानीय देवता हैं। निरुक्तके अनुसार - वायुतेि तेर्वा स्याद्गतिकर्मणः१ अर्थात् वायु शब्द गत्यर्थक वा धातु या वी धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है। वायु गतिशील है। आचार्य स्थौलाष्ठीक्केि अनुसार - ऐतेरिति स्थौलाष्ठीविः अनर्थको वकारः१ अर्थात् इण् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न आयु शब्द ही वायु बन गया है, वायु में (क आयु) व अनर्थक है। माषा विज्ञानके अनुसार इसे वर्णोपजन माना जायगा। यह आदि व्यंजनागमका परिणाम है। यास्क का निर्वचन वा धातुसे मानने पर ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे औचित्यपूर्ण माना जायगा स्थौलाष्ठीविके निर्वचनसे भी यास्क सहमत हैं। निरुक्त ९३ में आयुः की व्याख्या में - आयुश्च वायुः अयनः कह कर स्थौलाष्ठीवि के मतकी पुष्टिकी है। व्याकरणके अनुसार वा गतिगन्धनयोः धातुसे युक् या उण प्रत्यय कर वायु शब्द बनाया जा सकता है। स्थानके अनुसार वायु अन्तरिक्षस्थानीय है जिसे मध्यम लोक.कहा गया है। अन्तरिक्ष में गमनागमन वायुकी विशेषता है।
(२) श्रव :- यह अन्न का नाम है। निरुक्तके अनुसार - श्रव इति अन्न नाम श्रूयते इतिसतः१ अर्थात् यह श्रु श्रवणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह सदा सुना जाता है। इसका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। अर्थात्मकता पूर्ण उपयुक्त नहीं। श्रवः कर्णका भी वाचक है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जायगा। व्याकरणके अनुसार श्रूयतेऽनेनेति। श्रु+सर्वधातुम्योऽसुन् कर श्रवः बनाया जा सकता है। ४४६ :व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य याम्क