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इसके अनुसार इस शब्दमें उत् +सद् विशरणगत्यवसादनेषु धातुका योग है। (३) उत्स्यन्दनाद्वा यह ऊपर से ही स्त्रवित होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें उत् +स्यन्द् धातुका योग है। (४) उनत्तेर्वा यह आर्द्र करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें उन्दी क्लेदने धातुका योग है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा। शेष निर्वचन अर्थात्मक महत्व रखते हैं। व्याकरणके अनुसार उन्दीक्लेदने धातुसे सः प्रत्यय कर उत्सम् शब्द बनाया जा सकता है। कालान्तरमें लौकिक संस्कृतमें यह शब्द जल प्रस्त्रवणस्थानके लिए प्रयुक्त हआ है।८ इसे अर्थ विकासकी संज्ञा दी जा सकती है जो लाक्षणिक आधार रखता है।
(१४) पर्जन्य :- इसका अर्थ मेघ होता है। निरुक्तके अनुसार (१) पर्जन्यस्तृपेराद्यन्त विपरीतस्य तर्पयिता जन्यः यह शब्द तृप तृप्तौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है। तृप् धातुको आद्यन्त विपर्यय कर तृप्-पत् +जन्यः = पर्जन्य: बनाया जाता है। यह सभी लोगोंको तृप्त करने वाला होता है। तर्प - जन्यः, पढ़ें +जन्य:= पर्जन्यः। (२) पराजेता वा यह पर्जन्य सर्वोत्कृष्ट जेता है। अकाल पर विजय प्राप्त करने वाला है। इसके अनुसार इस शब्द में पर +जि जये धातुका योग है। (३) परोजनयिता वा यह सर्वाधिक अन्नादि उत्पन्न करने वाला है। इसके अनुसार इस शब्दों पर +जनी प्रादुर्भाव धातुका योग है। (४) प्रार्जयिता वा रसानाम् यह रसोको उत्पन्न करने वाला है। पौधोंमें रस उत्पन्न करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें प्र + अर्जु अर्जने धातुका योग है। अर्थात्मक आधार सभी निर्वचनोंका उपयुक्त है। तृतीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक महत्वसे पूर्ण है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जा सकता है। व्याकरणके अनुसार पर्जन्यः शब्द पृषु सेचने धातुसे निपातनसे सिद्ध होता है षकारका जकारमें परिर्वतन हो जाता है।२९ पर्जन्य इन्द्रका भी वाचक है।३० कोष ग्रन्थोंके अनुसार पर्जन्य मेघ, इन्द्र तथा बादलगर्जनका वाचक है।३१ पर्जन्य शब्दमें अर्थ विस्तार पाया जाता है।
(१५) वृहस्पति :- वृहस्पति शब्दका प्रयोग निरुक्तमें, मेघ चालक वायके अर्थ में प्राप्त होता है। वृहस्पतिर्ब्रहतःपाता वा पालयिता वा वह महान् जगत् का रक्षक है। इसके अनुसार इस शब्द में बृहत् + पा रक्षणे धातु का योग है। या वह इस महान् जगत् का पालन करने वाला है। इसके अनुसार इस शब्द में बृहत् + पा पालने धातुका योग है। यह निर्वचन सामासिक आधार रखता है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक महत्त्व से पूर्ण है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा। द्वितीय निर्वचनमें किंचित् ध्वन्यात्मक
४५१:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क