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बलयुक्त करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें इन्ध +रक् है या इन्ध शब्द ही इन्द्र बन गया है। इन्ध अन्नका वाचक है। उपर्युक्त सभी निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्त्व है। ध्वन्यात्मकता किसीमें पूर्ण उपर्युक्त नहीं। इन निर्वचनोंमें स्वरगत एवं व्यंजनगत औदासिन्य स्पष्ट है। इन्द्र शब्दका निर्वचन ब्राह्मण ग्रन्थोंमें भी प्राप्त होता है- तद् यदेनं प्राणैः समैन्धस्तद् इन्द्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायते२५ प्राणाधिदेवताओं ने उसे उद्दीपित किया, यही इन्द्रका इन्द्रत्व है। इसके अनुसार इन्द्र शब्दमें इन्ध् दीप्तौ धातु+रक् प्रत्ययका योग है।
इन्द्र शब्द के निर्वचन प्रसंगमें यास्क अपने पूर्ववर्ती या समकालीन आचार्यों के सिद्धान्तोंका भी उल्लेख करते हैं- (१) आचार्य आग्रायणके अनुसार इदंकरणादित्याग्रायणः इसने यह सब कुछ किया इसलिए इन्द्र कहलाया। इसके अनुसार इस शब्दमें इदम् + कृ करणे धातुका योग है। इदं +5 इदकरः = इन्द्रः।(२)(क) आचार्य औपमन्यवके अनुसार- इदं दर्शनादित्यौपमन्यवः उसने सब कुछ दर्शन किया इसलिए इन्द्र कहलाया। इसके अनुसार इस शब्दमें इदं + दृश् दर्शने धातुका योग है। इदं + दृश्-इदं-दर्शी-इन्द्रः। (ख) इन्दतेवैर्यकर्मणः यह परमैश्वर्यशाली है। इसके अनुसार इस शब्दमें इदि परमैश्वर्ये धातुका योग है। (ग) इन्दं छत्रूणां दारयिता वा वह परमैश्वर्यशाली होकर शत्रुओं को भगाने वाला है। इसके अनुसार इन्द + द्र- द्रावि= इन्द्रः है। दुणिजन्त है। (घ) इन्दन् शत्रूणां दारयिता वा परमैर्यशाली होता हुआ शत्रुओंको विदारण करने वाला है। इसके अनुसार इन्द्र + दृ विदारणे धातुके योगसे इसे निष्पन्न माना जायगा। यहां भी दृ णिजन्त है (ङ) आदरयिता च यज्वनाम्- यह यज्ञ करने वाले लोगोंको आदर करने वाला है। इसके अनुसार इस शब्दमें इन्द + दृङ् आदरे धातुका योग है। आग्रायण एवं औपमन्यवके निर्वचन ऐतिहासिक आधार रखते हैं तथा कछ कर्माश्रित हैं। यास्क के निर्वचन इन दोनों आचार्योंके निर्वचनोंकी अपेक्षा अधिक भाषा वैज्ञानिक है। आचार्य औपमन्यव के अन्तिम तीन निर्वचन ऐतिहासिक एवं धार्मिक आधार रखते हैं। इदि ऐश्वर्ये धातुसे रन् प्रत्यय कर इन्द्र शब्द बनाना भाषा वैज्ञानिक आधार रखता है। औपमन्वय के निर्वचन ध्वन्यात्मक महत्त्वसे युक्त है। व्याकरणके अनुसार इदि परमैश्वर्ये धातुसे रन् प्रत्यय कर इन्द्रः शब्द बनाया जा सकता है।२६
(१३) उत्स :- निरुक्तके अनुसार उत्स मेघका वांचक है. (१) उत्स उत्सरणात् यह ऊपर अन्तरिक्षमें गमन करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें उत् +सृ गतौ धातुका योग है। (२) उत्सदनाद्वा यह ऊपर ही विखर जाता है।
४५०:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य वास्क