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है। इसके अनुसार पराशरः शब्द में पर+ आ + शृ हिंसायाम् धातुका योग है। इन्द्रको पराशर कहा जाता है- २- पराशातयिता यातूनाम् १४४ अर्थात् जो राक्षसोंको समन करने वाला, मारने वाला है। इसके अनुसार इस शब्दमें पर + आ + शद् शातने धातुका योग है। इन्द्रके अर्थ में पराशरका निर्वचन कर्म पर आधारित है। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। यह ऐतिहासिक आधार रखता है भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे प्रथम निर्वचन अधिक संगत है। द्वितीय निर्वचन का अर्थात्मक महत्त्व है। व्याकरणके अनुसार भी पर + आ + शृ+ अच् प्रत्यय कर पराशरः शब्द बनाया जा सकता है।
(१८७) क्रिविर्दती :- इसका अर्थ होता है काटने वाले दांतों से युक्त । निरुक्तके अनुसार क्रिविर्दती विकर्तनदन्ती १४४ अर्थात् कृत् - क्रिवि + दन्त= क्रिविर्दती शब्द माना जायगा। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं हैं। इसका अर्थात्मक महत्त्व है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे उपयुक्त नहीं माना जायगा । लौकिक संस्कृतमें इस शब्दका प्रयोग प्रायः नहीं देखा जाता।
(१८८) करूलती :- इसका अर्थ होता है कटे हुए दांतों वाला। निरुक्तके अनुसार करूलती कृन्तदती १४४ अर्थात् कृत्तदती शब्द ही करूलती हो गया है- कृत्करू+ दती-लती करूलती। द वर्ण का ल में परिवर्तन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे पूर्ण संगत नहीं है। इस निर्वचन का अर्थात्मक महत्त्व है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त नहीं माना जायगा । प्रकृत १४६ में करूलती भग: का विशेषण है कुछ लोग इसे स्वीकार करते हैं तथा कुछ लोग इसे पूषा का विशेषण मानते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थमें पूषाको अदन्तक कहा गया है । १४७
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(१८९) वामम् :- इसका अर्थ होता इष्ट सेवनीय । निरुक्तके अनुसार वामं वननीयं भवति१४४ अर्थात् यह शब्द वन् सेवायां सभक्तौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह सेवनीय, या भजनीय होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । व्याकरणके अनुसार टुवम् उद्गिरणे धातुसे घञ् प्रत्यय कर वाम शब्द बनाया जा सकता है । १४८ (१९०) आदुरि :- इसका अर्थ होता है आदर करने वाला। । निरुक्तके अनुसार आदुरिः आदरणात्१४४ अर्थात् यह शब्द आ + दृ विदारणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। यहां ऋ का उ वर्णमें परिवर्तन हो गया है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक
३८६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क