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प्रदर्शन में ईयस् प्रत्ययको स्पष्ट नहीं करते हैं। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे इसे उपयुक्त माना जायगा । इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। व्याकरणके अनुसार वर+ईयसुन् याऊरु + ईयसुन् ३६ प्रत्यय कर वरीयस्-वरीय: बनाया जा सकता है।लौकिक संस्कृतमें वरीयान् शब्दका प्रयोग दो में एककी उत्तमता प्रदर्शनमें होता है। शब्दका समानार्थी प्रयोग अवेस्तामें भी प्राप्त होता है। ग्रीकमें भी eurus शब्दइसी अर्थमें प्राप्त होते हैं । ३७
(१५) द्वार :- इसका अर्थ होता है दरवाजा । निरुक्तके अनुसार द्वारो जवतेर्वा द्रवतेर्वा वारयतेर्वा२२ अर्थात् द्वार शब्द जुधातुसे या द्रु धातुसे या वारि धातुसे निष्पन्न होता है। जु एवं द्रु का अर्थ है गति तथा वारि का अर्थ है निवारण | द्वार आने जानेकी गतिसे युक्त होता है। वारिके अनुसार यह अन्य के प्रवेशका निषेध करता है। ध्वन्यात्मक दृष्टिसे सभी निर्वचन अपूर्ण हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा। कात्थक्यके अनुसार द्वारका तात्पर्य गृह-द्वार से है। शाकपूणिके अनुसार द्वारका तात्पर्य अग्निसे है। अग्नि ही हविः गमनका द्वार है अर्थात् अम्निके माध्यमसे अन्य देवताओं के पास हविः दी जाती है। वारि धातुके अनुसार यज्ञाग्निसे रोगका निवारण होता है। किंचित् ध्वन्यन्तरके साथ अंग्रेजी भाषामें भी यह शब्द Door प्राप्त होता है। ग्रीक का Thura द्वारके अधिक निकट है। इसका विवेचन द्वितीय अध्याय में भी किया गया है।
(१६) स्योनम् :- इसका अर्थ सुख या विश्रान्ति होता है। निरुक्तके अनुसारस्योनमिति सुखनाम, स्यतेरवस्यन्त्येतत् सेवितव्यं भवतीतिका२२ अर्थात् स्योनम् शब्द सोऽन्तकर्मणि धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इस सुखको जीवनका आधार माना गया है क्योंकि प्राणी इसमें विश्राम करते हैं अथवा सबके द्वारा सेवनीय है। सो धातुसे निष्पन्न इस शब्दका आधार धातुज है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा । सेवितव्यं भवति इसके द्वारा सेव् धातुसे भी स्योनम् के निर्वचनका संकेत प्राप्त होता है। इसमें मात्र अर्थात्मकता ही सुरक्षित रहती है। व्याकरणके अनुसार सिव् वाहुलकात् केवलोऽपि नः ऊडादेशो गुणश्चस्योनम् बनाया जा सकता है|३८
(१७) उरु:- इसका अर्थ होता है जांघ । निरुक्तके अनुसार वरतरमंगमुरु२२ अर्थात् यह शरीर के अन्य अंगोंकी अपेक्षा सुन्दर श्रेष्ठ होता है। इसके अनुसार वर से ही उरु माना गया। व का उ सम्प्रसारणके द्वारा हुआ। व का उ होना यद्यपि भाषा वैज्ञानिक महत्त्व रखता है फिर भी वरसे उरु मानने में ध्वन्यात्मक औदासिन्य है । यास्क का यह निर्वचन दृश्यात्मक आधार
४१६: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क