Book Title: Vyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Author(s): Ramashish Pandey
Publisher: Prabodh Sanskrit Prakashan

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Page 417
________________ रजस्वलतम। निरुक्तके अनुसार-रजिष्टैर्ऋतुतमैः रजस्वलतमैः प्रपिष्टतमैरिति वाप७अर्थात् यहशब्द ऋजु +तम्(इष्ठन् प्रत्यय) रजस्वल-रज+ तम् तथा प्रपिष्ट +तम से निष्पन्न माना गया है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। शेष निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्त्व है। अन्तिम निर्वचन भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे अपूर्ण है। (२८) स्वाहा :- देवताओंको हवि प्रदान करनेके समय कहा जाने वाला शब्द स्वाहा कहा जाता है। निरुक्तके अनुसार-स्वाहेत्येतत्१ -स् आहेति वा५७ अर्थात् सुन्दर कहा। इसके अनुसार इस शब्दमें सु+ आह शब्दका योग है। २. स्वावागाहेति वाप७अर्थात् अपने हृदयकी वाणीको कहता है,याहृदयस्थ भावको वाणी द्वारा प्रकट करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें स्कआहका योग है। ३. स्वं प्राहेतिवा५७ अर्थात अपने को ही कहता है, अपनी वस्तुको ही ग्रहण करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें स्व + प्राह शब्दका योग है। ४-स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा५७ अर्थात् अच्छी प्रकार स्वच्छ की गयी हवन सामग्रीसे हवन करता है। इसके अनुसार इस शब्दमें सु+आ+हु धातुका योग है। प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार ये निर्वचन संगत हैं। शेष निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्त्व है। अमरकोषके अनुसार स्वाहा अग्नि की स्त्रीका नाम भी है।५८ व्याकरणव अनुसार सु + आह (वच्)+ अच्=स्वाहा,सु+आ+ हू+ डा स्वाहा अथवा स्वाद् + आ(द का ह)= स्वाहा बनाया जा सकता है।५८ : सन्दर्भ संकेत :१.नि. ८।१, २. इन्द्र इतिक्रौष्टुकि:- स वल धनयोतृतमस्तस्य च सर्वा वलकृतिः- नि: ८।१, ३. अयमेवाग्निद्रविणोदाइतिशाकपूणिः। आग्नेयेष्वेव हि सूक्तेषु द्रविणोदसा: प्रवादाः भवन्ति-नि.८।१, ४. द्रुदक्षिभ्यामिनन्- उणा. २।५१, ५.यथो एतदग्नि द्राविणोदसमाहेत्वृत्विजोऽत्र द्रविनोदस उच्यते हविषो दातारस्ते चैनं जनयन्ति-नि:८।१,६.आज्जसेरसुक अष्टा ७।१।५०,७. धिषणा चवाग्मवति दधात्यर्थे वर्तमानात् धिषे:। सा हि अर्थान् धारयति। नि.दु.वृ. ८।१, ८.अम.को.१।५।१, ९ धृषेर्धिष् च संज्ञायाम् -उणा.२२८२, १०. धिष्ण्यं स्थानेगृहेभेऽग्नो-अम. को.३।३।१५५, ११.योऽयमृबीसे पृथिव्या मग्निरन्त रौषधि वनस्पतिष्वासु तमुन्निन्यथुः नि.६६, १२. आपोऽत्र तन्व उच्यते। तता अन्तरिक्षे। ताम्य ओषधिवनस्पतयो जायन्त ओषधिवनस्पतिभ्य एष जायते। नि.८।२, १३.८।३, १४. नि. ९।२, १५. दी इटिमोलोजीज ४२०:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क

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