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ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे भी इसे संगत माना जायगा। अगर अग्निका ताप न हो तो वन पीले पड़ जाएँगे तथा जल जम जायगा।११ आचार्य यास्कने निरुक्तमें ही वनस्पति को औषधि भी स्वीकार किया है। इनका कहना है कि अग्नि वनस्पति एवं जलमें भी विद्यमान हैं११ मेघसे औषधियां और वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं तथा इनमें अग्नि उत्पन्न होती है।१२ यास्क ऋ० १०।११०।१० की व्याख्याने वनस्पतिका अर्थ गार्हपत्याग्नि करते है।१३ पुनः ऋ० ९।४७२६ मन्त्र की व्याख्या वनस्पति का अर्थ लकड़ीका बना रथ भी किया गया है।१४ आचार्य कात्थक्य वनस्पतिको यूप कहते हैं। यूपका अर्थ यज्ञ स्तम्भ होता है - यूप इति कात्यक्य:१३ आचार्य शाकपूणि इसका अर्थ अग्नि मानते हैं- अग्निरिति शाकपूणि:१३ शाकपूणि अग्निको देवताओंमें प्रधान मानते हैं। इनके अनुसार यूप भी अग्नि ही है। उपर्युक्त निर्वचनोंसे स्पष्ट होता है कि यास्क किसी शब्दके निर्वचनमें पूर्व आचार्योके मत का भी उपस्थापन एवं सम्मान करते हैं। यास्कके अनुसार वनस्पति शब्दमें वन् सम्भक्तौ धातुसे वन तथा पा रक्षणे या पालने धातुसे पति शब्दके दोनों पद आख्यातज हैं। डा.वर्मा इसे आख्यातज शब्दोंसे बना मानते हैं।१५ इस निर्वचनका आधार समासकी प्रक्रिया है। लौकिक संस्कृतमें वनस्पतिका अर्थ वनमें उत्पन्न होने वाले अपुष्प फलने वाले पेड़ पौधे हैं।१६ वैदिक संस्कृतमें भी पेड़ पौधेके अर्थमें वनस्पति शब्दका प्रयोग होता है।१७ व्याकरणके अनुसार वनस्पति वन् + पतिः (सुडागम) वनस्पति शब्द बनाया जा सकता है।१८
(५) वनम् :- इसका अर्थ जल होता है। निरुक्तके अनुसार वनं वनोतेः१ अर्थात् यह शब्द वन सम्भक्तौ धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि इसका सेवन किया जाता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें वन के जल, जंगल, निवास, घर आदि अर्थ होते हैं।१९ व्याकरणके अनुसार वन् सम्भक्तौ धातुसे घञ्० या अच्२१ प्रत्यय कर वन शब्द बनाया जा सकता है।
(६) आप्रिय :- इसका अर्थ होता है आनी देवतागण। यह ऋचाका नाम भी है। यह प्रथमा का बहुवचनान्त है- आप्री-आप्रियः। निरुक्तके अनुसार(१) आप्नोते:२२ अर्थात् यह शब्द आप्M व्याप्तौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इसे देवता प्राप्त करते हैं या इससे आप्री देवता प्राप्त होते हैं। (ऋचा अर्थ में) आप्M व्याप्तौ-आप्री आप्रियः (२) प्रीणातेर्वा अर्थात् यह शब्द आ + प्रीञ् धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इन ऋचाओंसे सुख एवं आनन्दकी प्राप्ति होती है। आ + प्रीञ् धातुसे आती शब्दके निर्वचन की पुष्टि ब्राह्मण ग्रन्थ से ४१२: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क