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(२) द्रविणसः :- इसका अर्थ होता है धन चाहने वाले या धनसे। यह प्रथमान्त बहवचन है या पंचम्यन्त सान्त। निरुक्तके अनुसार · द्रविणस इति द्रविणसादिन इति वा अर्थात द्रविण (धन) की प्राप्तिके लिए जो कष्ट उठाते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें द्रविण+सादिनः का सः= द्रविण+ सः= द्रविणसः है। द्रविणसानिनः इति वा अर्थात् धनके या हविः के विभाजन करने वाले होते है। इसके अनुसार द्रविण+षण सम्भक्तौ धातुके योगसे यह शब्द निष्पन्न माना जायगाद्रविण+षण द्रविणसः। द्रविणसस्तस्मात् पिवत्विति वा अर्थात् द्रविणतः पंचम्यन्त का सान्त रूप है। जिसका अर्थ होता है सोमसे (सोमसे अपना अंश लेकर पान करें)। यहां द्रविण सोमका वाचक है। उपर्युक्त सभी निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जायगा।
(३) धिषणा :- धिषणा वाणीका वाचक है। धिषणासे भावार्थमें यत् प्रत्यय कर धिषण्य: या धिष्ण्यः बनाया जा सकता है। धिषणाभवः= बुद्धिसे उत्पन्न धिषण्यः या धिष्ण्यः कहलाता है। निरुक्तके अनुसार - धिषण्यो धिषणा भवः अर्थात् धिषणासे यत् प्रत्यय होकर ही धिषण्य हआ इसके अनुसार इसका अर्थ होगा बुद्धि से उत्पन्न। धिषणा वाग्धिषेर्दधात्यर्थे। अर्थात् धिषणा वाक् को कहते हैं यह धारणार्थक धिष् धातुके योगसे निष्पन्न होती है क्योंकि वाणी धारणकी जाती है या यह अर्थको धारण करती है। धी सादिनीतिवा' अर्थात् यह वाणी ज्ञानको प्राप्त कराती है। इसके अनुसार इस शब्दमें धीसद्धातुका योग है -धी+सदना धिषणा। धी सानिनीतिवा' अर्थात् वह बाणी ज्ञानको देने वाली है। इसके अनुसार धिषणा शब्दमें धी+सन् सम्भक्तौ धातुका योग है - धी+सन्ना धिषणा। प्रथम निर्वचन धिष् धातुसे माना गया है। यह धातुज सिद्धान्त पर आधारित है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। द्वितीय एवं तृतीय निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्व है। लौकिक संस्कृतमें धिषणा शब्दका अर्थ बुद्धि होता है जो वैदिक शब्दसे ही विकसित है। व्याकरणके अनुसार जिधृषा प्रागल्भ्ये धातुसे युच् प्रत्यय कर इसे निष्पन्न किया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें धिष्णयम् का प्रयोग स्थान, गृह, नक्षत्र, अग्नि, शक्ति आदि अर्थ में होता है।१०
(४) वनस्पति :- यह अनेकार्थक है। विभिन्न आचार्यों के मत से इसके विभिन्न अर्थ प्राप्त होते हैं। निरुक्त के अनुसार - वनस्पत इत्येन माहेष हि वनानां पाता वा पालयिता वा अर्थात् अग्नि को ही वनस्पति कहा गया है क्योंकि अग्नि वनों एवं जल के रक्षक हैं या पालन करने वाले हैं। यह निर्वचन
४११: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क