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कीकट कहा जाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें किं + क्रिया= कीकर-कीकट माना जा सकता है। वैदिक धर्मसे रहित नास्तिक प्रदेश कीकट के नाम से अभिहित था। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। द्वितीय निर्वचनमें किंचित् ध्वन्यात्मक शैथिल्य है। अर्थात्मकता से समन्वित ये निर्वचन उस देश की संस्कृति के सूचक हैं।१५३ व्याकरणके अनुसार की + कट् +अच् प्रत्यय कर कीकट शब्द बनाया जा सकता है। कीकट शब्दका प्रयोग उक्त अर्थों में ऋग्वेद में प्राप्त होता है किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुहे न तपन्ति धर्मम्। आनो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवन्न्ध यानः।१५४
यास्क का यह निर्वचन उक्त स्थान की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक स्थिति को स्पष्ट करता है। इस निर्वचनसे यह भी स्पष्ट है कि इस प्रदेश में यास्कके समय में वैदिक धर्म का प्रसार नगण्य था।
(१९५) मगन्द:- यह सूदखोरका वाचक है। निरुक्तके अनुसार-मगन्दः कुसीदी। मामागमिष्यतीति च ददाति१४४ अर्थात् मगन्द सूदके धन खाने वालेका पर्याय है क्योंकि वह सूदपर अपना धन देता है। मुझे अधिक धन प्राप्त होगा इसलिए धन देने वाला मगन्द कहलाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें माम् + गम् + दा धातुका योग है. माम् + गम् + दा = मगन्द। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार मगं पापं ददाति-मग +दा + ड प्रत्यय कर मगन्दः शब्द बनाया जा सकता है।
(१९६) पण्डक :- यह नपुंसकका वाचक है। निरुक्तके अनुसार पण्डकः पण्डगः प्रार्दकोवा प्रार्दयत्याण्डौ१४४ अर्थात् पण्डगको पण्डक कहा जाता है। पुरुपेन्द्रियकी
ओर जाने वाला पण्डग कहलाता है। पण्डक ही पण्डग है इसके अनुसार पण्ड+ गम् .पण्डगः= पण्डकः। पण्ड पुरुषेन्द्रिय का वाचक है। प्रार्दक से भी पण्डक माना गया है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा अण्ड को पीड़ित करने वाला वह अण्डकोषों को पीडित करता है इस शब्द में प्र-+ अद+ अण्डकः का योग है- प्र + अर्द +अण्डक • प्र + अण्डक पण्डकः। अण्डो आणीव व्रीडयति तस्तम्भे१४४ अर्थात वह अण्डकोषों को रथ के अणि (चक्रदण्ड) की तरह स्तम्भित किए रहता है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा! शेष निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते हैं।
३८८:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क