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अर्थोद्देश्य से यह निर्वचन अनुप्राणित है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार पंच् + क्तिन् २३ प्रत्यय कर पक्तिः शब्द बनाया जा सकता है।
(१५) त्रिष्टुप् :- यह वैदिक छन्दभेद है। निरुक्तके अनुसार- त्रिष्टुप् स्तोभति उत्तरपदा१ अर्थात् इसके उत्तर पद में स्तुभ् धातुका योग है- त्रि स्तुभ त्रिष्टुप्। त्रि का अर्थ है तीर्णतमं छन्दः' अर्थात् यह कुछ छन्दों की अपेक्षा अधिक प्रस्तुत होती है। इस छन्दमें ग्यारह ग्यारह अक्षरके चार पाद होते हैं. ११४ ४४ अक्षर। इस प्रकार तीर्णतम होनेके कारण आदि में त्रि शब्द है। अथवा त्रिवृद्धजः। तस्य स्तोभतीतिवा१ अर्थात् त्रिवृत् वज्र का नाम है उसका स्तवन करनेके कारण त्रि- (वज्र)+ स्तुभ्= त्रिष्टुभ् शब्द बना। यत् त्रिस्तोभत् तत् त्रिष्टुभस्त्रिष्टुप्त्वम्१ इति विज्ञायते अर्थात् ऐसा जाना जाता है कि तीन बार स्तवन किया जाना ही त्रिष्टुप् का त्रिष्टुप्त है। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे सर्वथा संगत माना जायगा। उक्त निर्वचन से छन्दगत उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है। शेष निर्वचन भी प्रथम निर्वचनकी ही पुष्टि करते हैं। अन्तिम निर्वचन का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। डा. वर्मा यास्कके उपर्युक्त निर्वचनको प्रसिद्ध निर्वचनोंमें स्थान देते हैं।२४ व्याकरणके अनुसार त्रि+ स्तुभ् जडी करणे + क्विप् (षत्वम्) कर त्रिष्टुप् शब्द बनाया जा सकता है।
(१६) जगती :- यह एक वैदिक छन्द भेद है। निरुक्तके अनुसार- जगती गततमं छन्द: अर्थात् यह सबसे अधिक गया हुआ, बढ़ा हुआ छन्द होता है। इस छन्दमें बारह-बारह अक्षरोंके चार पाद होते हैं १२x४४८ अक्षर। वैदिक छन्दोंमें यह सबसे बड़ा छन्द है। इस निर्वचनके अनुसार इसमें गम् धातुका योग है। जलचरगति अर्थात् जलमें होने वाली तरंगकी भांति इसकी गति होती है गम् + गति ही जगती हो गया है। जलतरंगकी गति वाला सबसे बड़ा बढ़ा छन्द ही जगती है। जगल्यमानोऽसृजत् इति च ब्राह्मणम्५ अर्थात् ब्रह्मा ने इसे क्षीणहर्षके समय बनाया इसलिए इसका नाम जगती हुआ ऐसा दैवत ब्राह्मणका वचन है। यास्कका निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। अन्तिम निर्वचन ब्राह्मण ग्रन्थका है जो ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। व्याकरणके अनुसार गम् +द्वित्व+ क्विप-मुक्-जगत्+ ङीप्- जगती शब्द बनाया जा सकता है।२६
(१७) विराड् :- यह वैदिक छन्दका नाम है। निरुक्तके अनुसार विराड्विराज,
४०१:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य याक