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नाद्वा' अर्थात् यह शब्द वि+ राजू दीप्तौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह विशेष रूपमें सुशोभित होता है। विराधानाद्वा' अर्थात् यह शब्द वि+ राध् वृद्धौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह दूसरे छन्दों की अपेक्षा विगत ऋद्धि वाला होता है।२७ विप्रापणाद्वा१ अर्थात् इस शब्दमें वि + प्र + आप् धातुका योग है क्योंकि इसमें विशेष की प्राप्ति होती है। विराजनात्सम्पूर्णाक्षरा' अर्थात् यह शब्द वि + राज् धातुसे सम्पूर्ण अक्षरोंकी उपस्थिति से बनता है। विराधनादूनाक्षरा' अर्थात् वि + राध् धातुसे कम अक्षरों वाला। विप्रापणादधिकाक्षरावा' अर्थात् वि + प्र + आप् से अधिक अक्षर वाला यह विराड़ है। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण अक्षरोंके रहने पर वि+ राज से कम अक्षरों के रहने पर वि + राध धातुसे तथा अधिक अक्षरोंके रहने पर वि + प्र + आप धातुसे इसका निर्वचन माना गया है। पिपीलिकमध्येत्यौपमिकम१ अर्थात उपमा की दृष्टिसे इसे पिपीलिक मध्या कहते हैं।२८ इसके बीचके अक्षर पिपीलिक मध्य भागके समान है। वि + राजृ से विराड् शब्दका निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक महत्त्व रखता है। इसे भाषा विज्ञानके अनुसार संगत माना जायगा। अन्तिम निर्वचन तुलना पर आधारित है। शेष निर्वचनोंके अर्थात्मक महत्त्व हैं। उपर्युक्त निर्वचनोंसे उक्त छन्दका स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। व्याकरणके अनुसार वि+राज् +क्विप् प्रत्यय कर विराड् शब्द बनाया जा सकता है।२९ वैदिक छन्दके किसी एक पादमें दो वर्गों की कमी वाले छन्द विराज के नामसे अभिहित होते हैं।
(१८) पिपीलिका :- इसका अर्थ होता है चींटी। निरुक्तके अनुसार पिपीलिका पेलतेर्गतिकर्मणः' अर्थात् पिपीलिका शब्द पेल् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह गतियुक्त होती है। इस निर्वचनमें स्वरगत औदासिन्य है। ध्वन्यात्मकताकी संगति आंशिक है। इसका अर्थात्मक महत्व है। व्याकरणके अनुसार पील प्रतिष्टम्मे धातुसे घञ्३० स्वार्थेकन्३१ + टाप् = पिपीलिका शब्द बनाया जा सकता है।
(१९) अग्नि :- यह आगका वाचक है। निरुक्तके अनुसार (१) अग्रणीभवति५ अर्थात् यह सभी अच्छे कर्मों में अग्रणी होती है। इसके अनुसार अग्निः शब्दमें अग्र + नी धातुका योग है. अग्र+नी= अम्निः।(२) अग्रं यज्ञेषु प्रणीयते अर्थात् यज्ञोंमें प्रथमतः इसीको ले जाया जाता है। अग्न्याधान यज्ञका प्रधान एवं प्रथम कर्म है। इसके अनुसार भी इस शब्दमें अग्र+नी धातका योग है- अग्र+नी- अग्निः । (३)अंगं नयति सन्नममान:३२ अर्थात् अपनेमें सम्यक् नवे हुए को अपना अंग बनाती है।अग्निमें डाला गया हविष् भी अग्नि बन जाता है। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दमें अंग+नी धातुका योग है-अंग
४०२:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क