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उपर्युक्त सभी निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें संगत माना जायगा। अर्थोपलब्धि के लिए यास्क ने विभिन्न अर्थ वाले एक ही धातु से कई निर्वचनों को प्रस्तुत किया है। निर्वचन क्रम में वे ब्राह्मण ग्रन्थके निर्वचन का उल्लेख करते हैं- यत्तज्जातः पशूनविन्दत इति तज्जातवेदसो जातवेदस्त्वम् इति ब्राह्मणम्५० अर्थात् उत्पन्न होते ही उसने पशुओं को प्राप्त किया। इसके अनुसार भी इस शब्दमें जन्-जात् + विद् धातुका योग है। विद्युत् तथा सूर्य भी जातवेदस् हैं। इसका स्पष्टीकरण यास्क निरुक्त में कर देते हैं।५२ निर्वचन साम्य है। व्याकरणके अनुसार जात + विद् + असुन् प्रत्यय कर जातवेदस् शब्द बनाया जा सकता है।५३
(२८) वैश्वानर :- वैश्वानर का अर्थ अग्नि होता है। निरुक्तके अनुसार - (१) विश्वान्नयति५४ अर्थात् सभी व्यक्तियोंको (परलोक) ले जाता हैं। इस निर्वचनके अनुसार इस शब्दमें विश्व +नर-शब्द खण्ड है। विश्वनर ही वैश्वानर हो गया है। (२) विश्व एनं नरानयन्तीति वा५४ अर्थात् सभी लोग इसे ले जाते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें विश्व +नरका योग है। (३) अपि वा विश्वानर एव स्यात् प्रत्युतः सर्वाणि भूतानि। तस्य वैश्वानर:५४ अर्थात् सबोंमें व्याप्त रहने वाला विश्वानर तथा उसमें स्वार्थ तद्धित अण् होनेके कारण वैश्वानर कहा जाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें विश्वान् +अर= विश्वानर + अण= वैश्वानरः। उपर्युक्त सभी निर्वचन अर्थात्मक आधार से युक्त हैं। विश्व + नर से वैश्वानर मानने में ध्वन्यात्मक संगति भी है। प्रथम एवं द्वितीय निर्वचनमें नी धातुकी संगति अर्थात्मक महत्त्वके लिए है। तृतीय निर्वचनमें विश्वान् ऋ + अर् प्राप्त है फलतः विश्वान् +अर् = विश्वानर वैश्वानर (अण)। यह तद्धित अण प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न है। दुर्गाचार्य वैश्वानर को विश्वानर का अपत्य मानते हैं इनके अनुसार विश्वानर से अपत्य अर्थमें प्रत्यय हुआ है।५५ व्याकरणके अनुसार- विश्वे नरा अस्य इति विश्वानरः, विश्वानरस्यापत्यम् वैश्वानर:- विश्वानर + अण = वैश्वानरः माना जायगा।५६ वैश्वानर इन्द्र, आकाश, आदित्य, वायु, जल, पृथ्वी आदि का भी वाचक है।५४
(३४) मातरिश्वा :- इसका अर्थ होता है वायु । निरुक्त के अनुसार मातरिश्वा वायु: मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति५९ अर्थात वह अन्तरिक्ष में सांस लेता है। इसके अनुसार मातरि + श्वस् प्राण ने धातु. के योगसे यह शब्द निष्पन्न होता है। मातरि आशं अनितीतिवा५९ अर्थात् अन्तरिक्ष में वह शीघ्र गमन करता है। इसके अनुसार इस शब्द में मातरि + आशु + अन् धातु का योग है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त ४०६:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क