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सुविदत्रम्। इन निर्वचनोंके ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा।
(२) मन्त्रा :- इसका अर्थ होता है- वेद प्रयुक्त ऋचा। निरुक्तके अनुसारमन्त्रा मननात्१ अर्थात् मनन क्रियासे निष्पन्न होनेके कारण मन्त्र कहलाया। मन्त्र शब्द में मन् ज्ञाने धातुका योग है। इसमें विचारोंका मनन होता है। आध्यात्मिक आधि दैविक एवं आधियज्ञ विचारोंके मनन से ही सम्बद्ध वैदिक ऋचाएं मंत्र कहलाए। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है।र भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे इसे सर्वथा संगत माना जायगा। मन्त्रका अर्थ सलाह भी होता है।३ इस अर्थमें मन्त्र शब्दकी व्युत्पत्ति मन्त्र गुप्तपरिभाषणे धातु से घञ्४ प्रत्यय या मन्त्र+ अच् करने पर मानी जा सकती है। यास्क ने मन्त्र शब्दका निर्वचन वेद विहित ऋचाओं को ध्यानमें रख कर ही किया है जो सर्वथा उपयुक्त है। यास्क प्रोक्त मन् धातुसे ष्ट्रन् प्रत्यय के द्वारा भी मंत्र शब्द बनाया जा सकता है। ईश्वरादेश का ज्ञान या विचार जिससे हो उसे मंत्र कह सकते हैं।५
(३) छन्दस् :- यह पद्यबन्ध प्रक्रिया का वाचक है। निरुक्तके अनुसार छन्दांसि छादनात्१ अर्थात् आच्छादन करने के कारण छन्द कहलाया। इस शब्दमें छद् आच्छादने धातुका योग है। आच्छादन करने के तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए दुर्गाचार्य ने कहा है कि मृत्यु से डर कर देवताओंने इन छन्दों से अपनेको आच्छादित किया था।१ इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार चन्द आह्लादने दीप्तौ च धातुसे असुन् प्रत्यय कर (आद्यक्षर ब को छ)६ छन्दस् या छन्द् + असुन्= छन्दस् शब्द बनाया जा सकता है। छान्दोग्योपनिषद्छ एवं आरण्यक८ से भी छन्द शब्द में छद् धातुका ही संकेत प्राप्त होता है।
(४) स्तोमः :- इसका अर्थ होता है स्तोत्र। देवताओं के स्तवन में प्रयुक्त मन्त्र समुदाय स्तोम कहे जाते हैं। निरुक्तके अनुसार स्तोमः स्तवनात् अर्थात् स्तवन क्रियासे सम्बद्ध होने के कारण स्तोम कहलाया। क्योंकि इससे स्तुति की जाती है। इस शब्द में स्तु स्तुतौ धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार स्तु स्तुतौ धातुसे मन् प्रत्यय स्तु+ मन्९- स्तोमन् शब्द बनाया जा सकता है।
३९७ :व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क