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प्राप्ति होती है। व्याकरणके अनुसार आड्+ शुष्+सन् + अनिः प्रत्यय कर आशुशुक्षणि: शब्द बनाया जा सकता है।
(२) शुक् :- इसका अर्थ होता है तेज। निरुक्त के अनुसार शुक् शोचते:१ अर्थात् यह शब्द दीप्त्यर्थक शुच् धातुसे निष्पन्न होता है- शुच् + क्विप् शुक्। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। व्याकरणके अनुसार भी शुच् + क्विप् प्रत्यय कर शुक् शब्द बनाया जा सकता है।
(३) शुचिः :- यह अनेकार्थक है। निरुक्तके अनुसार इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं। १- शुचि: शोचते: ज्वलतिकर्मण:१ अर्थात् शुचिका अर्थ दीप्ति होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें ज्वलत्यर्थक शुच् धातुका योग है। शुचिःका अर्थ पवित्र भी होता है- अयमपीतरः शुचिरेतस्मादेव१ अर्थात् पवित्र वाचक शुचि: शब्द भी इसी धातुसे निष्पन्न होगा- शुच्-शुचिः। निरुक्त सम्प्रदाय वालों के अनुसार शुचि: का निर्वचन होता है-निषक्तमस्मात्पापकमति नैरुक्ता:१ अर्थात् निकल गया है पापका समूह जिससे उसे शुचि: कहा जायगा तथा यह पवित्रका वाचक होगा या जिससे पापका निर्गमन हो गया है उसे शुचि कहते हैं। इस निर्वचनके अनुसार शुचि: शब्द में नि+ सिच् क्षरणे धातुका योग है। यास्कके निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। निरुक्त सम्प्रदायका निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे शिथिल हैं। इसका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। यास्कके अतिरिक्त भी निरुक्त सम्प्रदाय प्रचलित थे या यास्कके पूर्व से ही निरुक्त सम्प्रदाय थे यह यास्कके उद्धरणसे ही स्पष्ट होता है। व्याकरणके अनुसार शुच् + इन् प्रत्यय कर शुचि: शब्द बनाया जा सकता है।३
(४) आशा :- यह दिशाका वाचक है। निरुक्तके अनुसार-आशा दिशो भवन्ति आसदनात्१ अर्थात् यह निकट, आसन्न होती है इसलिए आशा कही जाती है। इसके अनुसार इस शब्दमें आ +सद् गतौ धातुका योग है। आशाका अर्थ उपदिशा भी होता है - आशा उपदियो भवन्ति अभ्यशनात्१ अर्थात् यह चारो ओर व्याप्त होती है इसलिए आशाका अर्थ उपदिशा भी होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें अभि+ अश् व्याप्तौ धातुका योग है अभि + अश् = आशा द्वितीय निर्वचन अर्थात् उपदिशाके अर्थमें निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार रखता है। भाषा विज्ञानके अनुसार अभि +
३२ : व्युत्पनि विज्ञान और आचार्य यास्क