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वीरुधः औषधयो भवन्ति विरोहणात्१ अर्थात् अनेक प्रकारसे उगनेके कारण वनस्पतियों को वीरुधः कहा जाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें वि +रूह बीज जन्मनि प्रादुर्भावे धातुका योग है वि + रूह-वि-रूध् ह का ध वर्ण परिवर्तन-वी+ रूध-वीरुधः। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। ह ध्वनिका महाप्राण वर्ण ध में परिवर्तन यास्कके अन्य निर्वचनोंमें भी प्राप्त होता है. ह-अर्ध१५ गाह्गाध१६ वह-वधू१७ आदि। व्याकरणके अनुसार वि + रूध् + क्विप्१८ + दीर्घ१९-वीरूधः शब्द बनाया जा सकता है। लता गुत्मादिके अर्थमें इसका प्रयोग लौकिक संस्कृतमें भी पाया जाता है।
(२५) नक्षद्दामम् :- इसका अर्थ होता है व्यापक होकर गति देनेवाला या प्रहार करने वाला। निरुक्तके अनुसार नक्षद्धाभम् अश्नुवान दाभम्१ अर्थात् व्याप्त होकर हिंसा करने वाला है। इसके अनुसार इस शब्दमें व्याप्त्यर्थक ना धातु तथा हिंसार्थक दम् धातुका योग है। नश् +दम् = नक्षद्दाभम्। उक्त दोनों धातुओंकी उपलब्धि उक्त अर्थों में निघण्टुमें होती है। अभ्यशनेन दभ्नोतीति वा१ अर्थात् व्याप्त होकर या समीप आकर हिंसा करता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधारपूर्ण संगत नहीं है। अर्थात्मक आधार इसका उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता।
(२६) अस्कृधोयु :- यह दीर्घायुका वाचक है। निरुक्तके अनुसारअस्कृधोयुरकृध्वायुः कृध्वितिह्रस्वनाम, निकृत्तं भवति१ अर्थात् अस्कृधोयुःका अर्थ होता है अकृध्वायुः। कृधु शब्द ह्रस्वका वाचक है क्योंकि यह कटा होता है। कृधु शब्दमें कृत् छेदने धातुका योग है। अ + कृत-कृधु + आयुः= अकृध्वायुः अस्कृधोयुः। यह निर्वचन अस्पष्ट है। ध्वन्यात्मक दृष्टिसे स्वरमत औदासिन्य भी स्पष्ट है। इसका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा। इस शब्दका प्रयोग उक्त अर्थमें लौकिक संस्कृतमें प्रायः नहीं देखा जाता।
(२७) निशुम्माः- इसका अर्थ होता हैअशिथिल गतिसे ले जाने वाला। निरुक्तके अनुसार-निशृम्माः निश्रथ्यहारिण: अर्थात् दृढ़तासे हरण करने वाले।२० इसके अनुसार इस शब्दमें नि+अथ् मोक्षणे हिंसायाम् धातुका योग है। इस निर्वचनमें प्रकृति प्रत्ययका संकेत अस्पष्ट है। ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे यह पूर्ण संगत नहीं है। भाषा विज्ञानके अनुसार भी इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जा सकता। इस निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। व्याकरण के अनुसार नि + अन्य् + भक् प्रत्यय कर निशुम्भः शब्द बनाया जा
३४२: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क